SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिमाण-द्वार १२७ हे भगवन्त- तिर्यञ्च कितने हैं? हे गौतम! काल की अपेक्षा से असंख्य उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के समयों का अपहार करते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों एवं प्रतरों के आकाश-प्रदेशों के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं। उन श्रेणियों को असंख्यात योजन कोटाकोटी परिमाण विष्कम्भ सूची के समतुल्य जानना चाहिए। इनके प्रतर के असंख्यात भागवती, असंख्यात कोटा. कोटी योजन आकाश श्रेणी में रहे प्रदेशों की संख्या के बराबर सामान्यतः पञ्चेन्द्रिय तिर्यन जीव हैं वे सभी प्रत्येयः सम में एक-२८. शमीमा गरे जो देवों के द्वारा उनके अपहार काल से असंख्यगुणा कम काल में ही वे प्रतर के सभी आकाश-प्रदेश अपहृत हो जायेंगे। इसका तात्पर्य यह है पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च से देव असंख्य गुणा कम हैं। यही बात प्रज्ञापनामहादण्डक में भी कही गयी है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च देवों की संख्या से असंख्यातगणा अधिक है, अत: वे देवों की अपेक्षा कम काल में सम्पूर्ण प्रतर का अपहार करते हैं। तिर्यञ्चों के अपहार काल की अपेक्षा देवताओं के अपहार काल में अधिक समय लगता है क्योंकि वे परिमाण में तिर्यञ्चो की अपेक्षा कम हैं। वैक्रिय लब्धिधारी मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण पाहमंगुलमूलम्सासंखतमो सूइसेडिआयामों। उत्तरविधियाणं पणतयसनितिरियाणं ।।१५१।। गाथार्थ- उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने वाले पर्याप्त संज्ञी तिर्य जीवों का परिमाण (संख्या) अंगुल जितने प्रतर क्षेत्र के आकाश प्रदेशों के वर्गमल असंख्यातवां भाग के समरूप सूचीक्षेत्र में जितने आकाश-प्रदेश हैं उतना जानना चाहिये। नोट- सूची, श्रेणी, प्रतर, वर्ग, घनाकार आदि का स्पष्टीकरण गाथा १०३ के विवेचन में किया जा चुका है। विवेचन-उत्तर वैक्रिय शरीर लधि अपर्याप्त और असंशी तिर्य जीवों को नहीं होने से मात्र पर्याप्त तथा संज्ञी तिर्यञ्च शब्द का प्रहण किया गया है। पझेन्द्रिय तिर्यञ्चों में पर्याप्त, संजी (गर्भज) तिर्यश्च को ही वैक्रिय लब्धि हो सकती है। वैक्रिय शरीरी पर्याप्त गर्भज पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव काल की अपेक्षा से असंख्यात उत्सर्पिणियों-अवसर्पिणियों के समयों की संख्या जितने हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग की असंख्यात श्रेणियों के आकाश-प्रदेशों की संख्या के समरूप हैं।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy