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मङ्गलाचरण
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छानकर, निकाल कर रखने से उसके पुनः दूषित होने का भय नहीं रहना हैं अथवा जिस प्रकार अग्नि को जल से पूर्णतः बुझा देने के बाद उसके पुनः प्रकटन का कोई भय नहीं रहता ठीक उसी प्रकार इस गुणस्थान मे पहुँचे जीव को किसी प्रकार के पतन का भय नहीं रहता है।
यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। यहाँ पहुँचने पर साधक की साधना को विराम मिल जाता है। इस गुणस्थान में व्यक्ति सहज रूप से ज्ञानावरण की पाँच, दर्शनावरण की नौ तथा अन्तराय की पाँच— कुल उन्नीस कर्म प्रकृतियों को क्षय करके केवलदर्शन और केवलज्ञान को प्राप्त कर तेरहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है।
१३. सयोगीकेवली गुणस्थान- केवलज्ञान रूपी दिवाकर (सूर्य) की किरणों के समूह से जिनका अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया हैं, जिन्होंने नौ केवललब्धियों के उद्गम से "परमात्मा" रूपी संज्ञा को प्राप्त कर लिया है। ऐसे योग युक्त भगवान को सयोगी जिन कहा गया है। केवली को राग-द्वेष नहीं होता अतः उनके नवीन कर्मों का बन्ध भी नहीं होता । मात्र योग के कारण उन्हें ईर्यापथिक आस्रव और बन्ध होता है, जो तत्काल ही निर्जरित होता रहता है।
जिस प्रकार सूखी भित्ति पर आकर लगी हुई बालू तत्क्षण झड़ जाती हैं, उसी प्रकार योग के सद्भाव से आये हुए कर्म परमाणु भी कषाय के अभाव में तत्काल झड़ जाते हैं। ये सयोगी जिन धर्मदेशना देते हुए जन-कल्याण करते हैं।
इस गुणस्थान वाले व्यक्ति को कृतकृत्य हो जाने से साधक नहीं कहा जा सकता, किन्तु चार घाती कर्म क्षय हो जाने पर भी चार अघातो कर्म शेष रहने से उन्हें सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता हैं। यहाँ बंधन के पाँच कारणों में से १. मिध्यात्व २. अविरति ३ प्रमाद तथा ४ कषाय इन चार के समाप्त होने पर भी मन-वचन और काय की प्रवृत्तिरूप पाँचवा कारण योग शेष रहता है। इसीलिए इन्हें सयोगी- जिन, अर्हत्, सर्वज्ञ, वीतराग एवं केवली कहा जाता है। इस अवस्था की तुलना वेदान्त की जीवन्मुक्ति या सदेहमुक्ति की अवस्था से की जा सकती है।
१४. अयोगी केवली - जो जीव शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुए हैं अर्थात् शैल (पर्वत) के समान स्थिर योग वाले हैं, मन, वचन एवं काय की प्रवृत्तियोंयोगों के निरुद्ध कर देने से जिनका आस्रव सर्वथा रुक गया है, जो कर्मरज से विप्रमुक्त हैं और योग से रहित हो चुके हैं ऐसे भगवान को अयोगी केवली