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________________ १६ जीवसमास कहते हैं। इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, लृ इन पाँच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण में लगने वाले काल के समान होता है। प्रारब्ध कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं, इस कारण जब जीवन का अन्तिम समय निकट होता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तो आवश्यकता पड़ने पर केवली पहले समुद्घात करते हैं फिर शैलेशीकरण कर योग निरोधकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। यही सर्वांगीण पूर्णावस्था है, जिसे मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, सिद्धि, शिवपद और परमात्मावस्था कहा गया है। अष्ट कर्मों के नष्ट होने से जीव अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, वीतरागता, अनन्तवीर्य अव्याबाधसुख, अक्षयस्थिति, अमूर्तता, अगुरुलघुता आदि आठ गुणों को प्राप्त करता है। गुणस्थानातीत सिद्धों का स्वरूप- जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, क्षायिकसम्यक्त्वादि आठ गुणों से युक्त हैं. कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि के लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है वह अन्तदीपक है। वह अपने से नीचे के सभी गुणस्थानों के असंयत्तपने का निरूपण करता है तथा जो सम्यग्दृष्टि शब्द है वह ऊपर के समस्त गुणस्थानों में पाया जाता है। प्रमत्त शब्द भी अन्तदीपक है इसलिए वह छठे से पूर्व सभी गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व को सूचित करता हैं अर्थात् छठे गुणस्थान तक जीव प्रमत्त हैं उसके ऊपर सातवें गुणस्थान से सब अप्रमत्त हैं। बादर पद भी अन्तदीपक है वह पूर्ववतीं समस्त गुणस्थानों के बादर होने का निर्देश करता है। छद्यस्थ पद को भी इसी प्रकार से जानना चाहिए। सयोगी पद भी अपने से नीचे के सभी गुणस्थानों को सयोगी प्रतिपादित करता है। अयोगी के भेद दुविहा होति अजोगी सभवा अथवा निरुद्धजोगी ब । इह सभवा अथवा उण सिद्धा जे सव्वभवमुक्का ।।१०।। गाथार्थ - जिन्होंने अपने योगों को निरुद्ध कर लिया ऐसे अयोगी केवली दो प्रकार के होते हैं-- १. समय अयोगी तथा २. अभव अयोगी। इसमें सभव अयोगी सिद्धत्व से कुछ न्यून होते हैं क्योंकि योग निरोध कर लेने पर भी अभी शरीर युक्त होने से संसार में हैं। जो सभी प्रकार से भव (संसार) से मुक्त हैं वे अभवसिद्ध होते हैं। १. प्रस्तुत विवेचन 'पञ्चसंग्रह और डॉ. सागरमल जैन के ग्रन्थ "जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर किया गया है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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