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जीवसमास
प्रकृतियों को अतिविमल ध्यान रूप अग्नि से जला डालते हैं या फिर उन्हें उपशमित कर देते हैं। साधक के कामवासनात्मक भाव जिन्हें जैन परिभाषा में 'वेद' कहा जाता हैं, उनका भी यहाँ उन्मूलन हो जाता है।
१०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान- जिस प्रकार कोसुंभ भीतर से अत्यल्प लालिमा वाला होता हैं उसी प्रकार सूक्ष्मराग सहित जीव को सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवर्ती जानना चाहिए। इसमें उपशम एवं क्षायिक दोनों ही श्रेणी वाले जीव होते हैं। उपशम श्रेणी वाला जीव सूक्ष्म लोभ का उपशम कर ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचता है और क्षपक श्रेणी वाला उसका क्षय करके बारहवें गुणस्थान में पहुँचता है। यहाँ सम्पराय से आशय कषाय से हैं। डॉ० नथमल टाटिया के शब्दों में आध्यात्मिक विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अववेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ मे की जा सकती है।
११. उपशान्तमोह गुणस्थान- कतकफल सहित जल अथवा शरद्काल में सरोवर में मिट्टी आदि के तली में बैठ जाने के कारण जिस प्रकार पानी निर्मल प्रतीत होता है उसी प्रकार जिसका सम्पूर्ण मोहकर्म सर्वथा उपशान्त हो गया हैं ऐसा जीव अत्यन्त निर्मल परिणाम वाला होता है ।
इस गुणस्थान का काल अत्यल्प अर्थात् अन्तर्मुहूर्त होता है। इसके समाप्त होते ही वह नीचे गिरता हुआ सातवें गुणस्थान को प्राप्त होता हैं यदि उसका संसार परिभ्रमण शेष हैं तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी पहुँच जाता है। ऐसी आत्मा पुनः प्रयास से प्रगति कर आगे बढ़ सकती हैं। उपशमन या दमन के द्वारा आध्यात्मिक उत्कर्ष की यह चरम सीमा है। परन्तु उपशमन या दमन साधना का सच्चा मार्ग नहीं है, क्योंकि उसमें स्थायित्व नहीं होता। दुष्ट प्रवृत्तियों को दबा देने या उपशमित कर देने से वे निर्मूल नहीं होतीं अपितु द्विगुणित वेग से विस्फोट करती हैं। अतः यहाँ से साधक का पतन अवश्यम्भावी है, निश्चित है। इसको उपमा राख में दबी हुई अग्नि अथवा पानी में नीचे बैठी हुई मिट्टी के समान है जो कभी भी समय पाकर प्रकट हो सकती है। गीता कहती है कि दमन में विषयों का निवर्तन तो हो जाता है परन्तु वृत्तियों का निवर्तन नहीं होता । वृत्तियों के निर्मूल न होने से कुसंस्कारों के पुनः प्रकट होने की सम्भावना बनी रहती हैं।
१२. क्षीणमोह गुणस्थान - मोहकर्म के सम्पूर्णत: क्षय हो जाने से जिसका चित्त स्फटिक के भाजन में रखे हुए स्वच्छ जल के समान निर्मल हो गया है, ऐसे वीतराग साधक को क्षीण कषायी कहा गया है। जिस प्रकार निर्मली ( कतकफल), फिटकरी आदि से स्वच्छ किये हुए जल को स्फटिक के भाजन में