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________________ काल द्वार १७५ उत्तर — विकलेन्द्रिय की कायस्थिति संख्यात काल जितनी बलायी गई है। प्रज्ञापना (सूत्र १२८१ - १२८४ ) में बताया गया है कि हीन्द्रिय पर्याप्त जीव द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः संख्यात वर्षों तक रहता है। 7 जीन्द्रिय पर्याप्त त्रीन्द्रिय पर्याप्त के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः संख्यात रात-दिन तक त्रीन्द्रिय में रहता है। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीव के रूप मे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः संख्यात मास तक चतुरिन्द्रिय में रहता है। पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तजीव पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त के रूप में जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः शतपृथकृत्यसागरोपम तक पचेन्द्रिय पर्याप्त के रूप में रहता है। पचेन्द्रिय तिर्य तथा मनुष्य की उत्कृष्ट कार्यस्थिति तिणि य पल्ला भणिया कोडिपुहुतं च होइ पुव्वाणं । पंचिंदियतिरियनराणमेव उठि । २९७ ।। गाथार्थ – पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की उत्कृष्ट कार्यस्थिति तीन पल्योपम और पूर्वकोटि पृथक्त्व (१ करोड़ पूर्व से ९ करोड़ पूर्व ) बतायी गई हैं। विवेचन - पूर्वकोटि आयु वाले तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय यदि अपनी ही काय मे पुनः पुनः जन्म ले तो उत्कृष्टतः वे सात बार उत्पन्न होते हैं, जिससे स्वपर्याय में उनकी कायस्थिति सात पूर्वकोटि काल तक होती हैं, आठवीं बार यदि वे तिर्यञ्चगति में जन्म लें तो निश्चित रूप से असंख्यातवर्ष की आयु वाले होंगे वहाँ तीन पल्योपम की ही उत्कृष्ट आयु होती है। इस प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यच आठों भव में पूर्वकोटि पृथक्त्व साधिक तीन पल्योपम की उत्कृष्ट कार्यस्थिति वाले हो सकते हैं। इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जान लेना चाहिये। पर्याप्त आदि की कार्यस्थिति पज्जत्तवस्यलिंदियसहस्सममहिय मुबहिनामाणं । दुगुणं च तसतिभवे सेसावभागो मुहुसंतो ।। २१८।। गाथार्थ - सकलेन्द्रिय पर्याप्त की उत्कृष्ट कार्यस्थिति हजार सागरोपम से कुछ अधिक तथा त्रसपर्याय के शेष विभागों की कार्यस्थिति उससे दुगुनी अर्थात् दो हजार सायरोपम की होती है। सभी की जघन्य कार्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है। विवेचन - पर्याप्तक का लब्धि या करण से युक्त पर्याप्तक के रूप में पुनः पुनः उत्पन्न होने की उत्कृष्ट कार्यस्थिति कुछ अधिक सागरोपम पृथकृत्य होती
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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