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सत्पदप्ररूपणाद्वार
३. जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है अर्थात् बन्धन में आती है वह लेश्या है।
५. नाभ्ययन की बहद वत्ति में लेश्या का अर्थ आमा, कान्ति, प्रभा या छाया किया गया है।
५. यापनीय आचार्य शिवार्य ने भगवतीआराधना में छाया पुद्गल से प्रभावित जीव के परिणामों (मनोभावों) को लेश्या माना है।
जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गयी है- १. द्रव्य लेश्या और २. भाव लेश्या। द्रव्यलेश्या पौद्गलिक है और भावलेश्या मनोवृत्ति रूप है।
९. द्रव्यलेश्या-द्रव्यलेश्या सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से बनी वह संरचना है जो हमारे मनोभावों एवं तज्जनित कर्मों का सापेक्ष रूप में कारण अथवा कार्य बनती है, जिस प्रकार पित्त द्रव्य की विशेषता से स्वभाव में ऋद्धता आती है और क्रोध के कारण पित्त का निर्माण बहुल मात्रा में होता है उसी प्रकार इन सूक्ष्म भौतिक तत्त्वों से मनोभाव बनते हैं और मनोभाव के होने पर इन सूक्ष्म संरचनाओं का निर्माण होता है।
२. भावलेश्या-यह लेश्या आत्मा के अध्यवसाय या अन्त:करण की वृत्ति है। भाव-लेश्या मनोगत भाव है जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर तथा मन्दतम आदि अनेक भेद होने से भाव लेश्या अनेक प्रकार की है तथापि संक्षेप में ६ भेद बताकर जैन दर्शन में उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है।
अप्रशस्त मनोभाव
प्रशस्त मनोभाव १. कृष्णलेश्या -तीव्रतम अप्रशस्त मनोभाठ ४. तेजोलेश्या - मन्द प्रशस्त मनोभाव २. मीललेश्या -तीन अप्रशस्त मनोभाव 4. पद्मलेश्या - तीव्र प्रशस्त मनोभाव ३, कापोतलेश्या -मंद अप्रशस्त मनोभाव ६. शुक्ललेश्या - तीव्रतम प्रशस्त मनोभाव
दृष्टान्त- इन छ: भेदों को समझने के लिए शास्त्रों में दो दृष्टान्त दिये गये हैं। छ: पुरुष मार्ग में चले जा रहे थे। मार्ग में उन्हें भूख लगी और उसी समय उन्होंने एक जामुन का वृक्ष देखा। उसे देख एक व्यक्ति ने कहा कि वृक्ष के ऊपर चढ़ने की अपेक्षा हम इस वृक्ष के काट कर गिरा दें और फलों से अपनी क्षुधा की निवृत्ति कर लें। यह सनकर दूसरे ने कहा- वृक्ष को काटने से क्या लाभ? केवल इसकी शाखाओं को काट देने से भी अपना काम बन जायेगा। तीसरे ने कहा- यह उचित नहीं है, हम मात्र छोटी-छोटी प्रशाखाओं या डालियों को तोड़कर भी अपनी क्षुधा शान्त कर सकते हैं। तब चौथे ने कहा- छोटी शाखा