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________________ F ५६ जीवसमास १. बदर्शन-चक्षु अर्थात् आंखों के माध्यम से पदार्थ की अनुभूति करना। २. अवनदर्शन- चक्षु के बिना अन्य इन्द्रियों के माध्यम से पदार्थ की अनुभूति करना। ३. अवधि दर्शन- आत्मा की निर्मलता से अथवा भवप्रत्यय से बिना इन्द्रियों की सहायता से निश्चित संता बोक के पद की अनुभूति करना। ४. केवल दर्शन- परिपूर्ण निर्मल आत्मा के द्वारा समग्न लोक के पदार्थों की त्रैकालिक अवस्थाओं का बोध होना। १०. लेश्या मार्गणा लेश्या एवं गुणस्थान किण्हा नीला काऊ अविरयसम्मत संजयंतऽपर । तेऊ पम्हा सपणऽप्यमायसुक्का सजोगता ।।७।। गाथार्थ- कृष्णा, नील एवं कापोत- ये तीन लेश्याएं अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती हैं। एक अन्य मत के अनुसार ये तीनों लेश्याएँ प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक भी होती हैं। तेजस् और पद्म ये दो लेश्याएँ समनस्क मिथ्यादृष्टि से अप्रपत्तसंयत गुणस्थान तक हो सकती हैं। शुक्ल लेश्या मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक हो सकती है। विवेचन-शुक्ल लेश्या तो प्रथम से लेकर अन्तिम सयोगी केवली गुणस्थान तक हो सकती है। उत्तरोत्तर आध्यात्मिक विकास में क्रमश: अशुभ लेश्याएँ छूटती जाती हैं। तीन अशुभ लेश्याएं चौथे अथवा मतान्तर से छठे गुणस्थान तक ही होती है उसके आगे नहीं। तेजोलेश्या एवं पद्मलेश्या अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। अयोगी केवलो तो लेश्या से रहित होते हैं। लेश्या किसे कहते हैं यह आगे स्पष्ट किया जाता हैलेश्या विवेचन १. श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका पृष्ठ ६४५/१ पर प्रमाण रूप से एक प्राचीन श्लोक दिया है जिसका अर्थ है- आत्मा का सहज स्वरूप स्फटिक के समान निर्मल है, उसके जो कृष्ण, नील आदि भिन्न-भिन्न परिणाम अनेक रंग वाले पुद्गल विशेष के प्रभाव से होते हैं उन्हें लेश्या कहते हैं। २. पंचसंग्रह गाथा १४२ के अनुसार जिसके द्वारा जीव पुण्य और पाप से अपने आपको लिप्त करता है अर्थात् उनके आधीन होता है ऐसौ कषाय अनुरंजित योग प्रवृत्ति को गणधरों ने लेश्या कहा है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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