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भूमिका
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अर्थात् अनुक्त शेष मार्गणाओं के भव और भाव-परिवर्तन-सम्बन्धी काल-विभाग को क्रम से अनुमार्गण करके भाव से समुपयुक्त (अतिसावधान) होकर इसी प्रकार से शेष मार्गणाओं के अन्तरानुगम को करना चाहिए।
भावप्ररूपणा जीवसमास में केवल छह गाथाओं के द्वारा की गई है, जबकि षट्रवाष्टायम के टीनाशात पे दर १२ मृगों में वर्णित है। जीवसमास की संक्षेपता को लिए हुए विशेषता यह है कि इसमें एक-एक गाथा के द्वारा मार्गणास्थानो में औदयिक आदि भावों का निर्देश कर दिया गया है। यथा
गह काय वेय लेस्सा कसाय अनाण अजय असण्णी। मिच्छाहारे उदया, जियभवियर त्तिय सहायो।। २६९ ।।
अर्थात् गति, काय, वेद, लेश्या, अज्ञान, असंयम, असंज्ञी, मिथ्यात्व और आहारमार्गणाएँ औदयिकभावरूप हैं। जीवत्व, भव्यत्व और इतर (अभव्यत्व) ये तीनों स्वभावरूप अर्थात् पारिणामिक भावरूए हैं।
जीवसमास में अल्पबहुत्व को प्ररूपणा एक खास ढंग से की गई है, जिससे षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण और द्वितीय खण्ड खदाबंध इन दोनों खण्डों की अल्पबहुत्वप्ररूपणा के आधार का सामञ्जस्य बैठ जाता है। अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में जीवसमास के भीतर सर्वप्रथम जो दो गाथाएँ दी गई हैं, उनका मिलान खुद्दाबंध के अल्पबहुत्व से कीजिएजीवसमास-mथा
थोवा नरा नरेहि य असंखगुणिया हवंति णेरइया। तत्तो सुरा सुरेहि य सिद्धाऽणंता तओ तिरिया।। २७१।।
थोबाठ मणुस्सीओ नर-नरय-तिरिक्खिओ असंखगुणा। सुर-देवी संखगुणा सिद्धा तिरिया अणंतगुणा।।२७२।। खुदावन्य-सूत्र
अप्पानहगाणुगमेण गदियाणुवादेण पंच गदीओ समासेण।।१।। सव्वत्योवा मणुसा।।२।। गेरइया असंखेज्जगुणा।। ३।। देवा असंखेज्जगुणा।।४।। सिद्धा अणंतगुणा।।५।। (खुद्दाबंध-अल्पब०, पृ. ४५१)
अगदीओ समासेण ।।७।। सच्चत्योवा मणुस्सिणीओ ||८|| मणुस्सा असंखेज्जगुणा।।९।। णेरड्या असंखेजगुणा।।१०।। पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगणाओ ।।११।। देवा संखेजगुणा ।।१२।। देवीओ संखेज्जगुणाओ।।१३।। सिद्धा अणंतगुणा।।१४।। तिरिक्खा अणंतगुणा।।१५।।
(खुद्दाबं० अल्पब०, पृ. ४५१)