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परिमाण-द्वार
१२१ विवेचन-सास्वादन तथा सम्यक्मिथ्या गुणस्थान का काल स्वल्प होने से ये जीव कभी होते हैं तथा कभी नहीं भी होते। अत: इनकी संख्या कभी कम से कम एक और अधिकतम पल्योप में जितने समय होते हैं उनका आंग्ल्यातवां भाग जितने ही होते हैं। अपिरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संघत और अप्रमत्त संपत गुणस्थानवी जीवों की संख्या
पल्ला संखियभागो अविरयसम्मा य देस विरया या
कोडिसहस्सपुहत्तं धमत्त इयरे उ संखेज्जा ।।१४६ ।। गाथार्थ- अविरत सम्यगदृष्टि तथा देशविरत गुणस्थानवती जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने होते हैं। प्रमत्त संयत सहस्र कोटि पृथक्त्व है एवं इतर अर्थात् अप्रमत्त संयत संख्यात परिमाण हैं।
विवेचन-द्वितीय तथा तृतीय गुणस्थानवी जीव अध्रुव होने के कारण लोक में भजना अर्थात् विकल्प से पाये जाते हैं। परन्तु चतुर्थ, पंचम, पाठ तथा सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव सामान्यतः सर्वलोक की अपेक्षा से ध्रुव होने से सदा पाये जाते हैं। इनका कभी व्यवच्छेद (अभाव) नहीं होता।
अविरत सम्यग्दृष्टि- इनका परिमाण जघन्य अर्थात् न्यूनतम और उत्कृष्ट अर्थात् अधिकतम इन दोनों अपेक्षा से क्षेत्र पल्योपम का असंख्यातवें भाग के समतुल्य होता है।
देशविरति-अविरत सम्यगदष्टि जीवों का परिमाण पल्योपम का अधिकतम असंख्यातवां भाग होता है, वहाँ देशविरति जीवों का परिमाण क्षेत्र पल्योपम का न्यूनतम असंख्यातवां भाग बताया गया है।
प्रमत्त संयत-प्रमत संयत जोवों का परिमाण जघन्य न्यूनतम दो हजार कोटि और अधिकतम नव हजार कोटि (करोड़) होता हैं। ___ अप्रमत्त संचत-प्रमत्त संयत जीवों का परिमाण संख्यात कहा गया है। इसके आगे गुणस्थानवी जीव को मोहउपशामक अर्थात् उपशम श्रेणी से आरोहण करने वाले तथा उपशान्त मोह (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) और मोहक्षपक अर्थात् क्षायिक श्रेणी से आरोहण वाले तथा क्षीण मोही (बारहवें) गुणस्थानवी कहते हैं। अब इनका परिमाण कहते हैंउपशामक व उपशान्तमोह का परिमाण
एगाइय भयणिज्जा प्रवेसणेणं तु जाव चउपना । उवसामगेव-संता अखं पा आव संखेज्जा ।। १४७।।