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________________ जीवसमास गाथार्थ - छेदोपस्थापनीय का उत्कृष्ट काल पचास लाख कोटि सागरोपम तथा परिहारविशुद्धि का उत्कृष्ट काल देशोन दो पूर्व क्रोड वर्ष अनेक जीवों के आश्रय से समझना चाहिये । १९४ विवेचन - छेदोपस्थापनीय अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थकर के तीर्थ में इसका उत्कृष्ट काल पचास जाल कोट सागरोपम होता है। अन्य तीर्थकर अर्थात् दूसरे तीर्थंकर से बाईसवे तीर्थकर के काल में इसका अभाव हैं, क्योंकि उनके शासनकाल में मात्र सामायिक चारित्र होता है। - परिहारविशुद्धि - अनेक जीवों की अपेक्षा इसका काल देशांन दो पूर्वकोटि वर्ष है। वह इस प्रकार है- अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर के पास्त्र पूर्वकोटि वर्षायु वाले नवसाधुओं का गण उनतीस वर्ष की उम्र के बाद परिहारविशुद्धि चारित्र स्वीकार करे तथा यावज्जीवन पालन करे। इन्हीं से फिर पूर्व कोटी वर्षायु वाले नव साधुओं का दूसरा गण यह चारित्र स्वीकार कर यावज्जीवन पालन करे। इसके बाद फिर कोई यह चारित्र स्वीकार नहीं कर सकता, कारण पूर्व में कहा गया है कि यह चारित्र तीर्थंकर या तीर्थंकर के हस्तदीक्षित ही देने के अधिकारी हैं अन्य कोई नहीं। इस प्रकार अट्ठावन (२९+२९=५८) वर्ष कम दो पूर्व कोटि वर्ष तक इस चारित्र की सतत् विद्यमानता / सम्भावना है। ये दोनों चारित्र प्रथम तथा अन्तिम तीर्थकरों के काल में ही होता हैं। बाईस तीर्थंकर के काल में तथा महाविदेह क्षेत्र में इसका अभाव है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में पूछा गया हैं कि हे भगवन्– छेदोपस्थापनीय संयत का काल कितना है? हे गौतम! जघन्य से ढाई सौ वर्ष तथा उत्कृष्ट से पचास लाख कोटि सागरोपम काल हैं। हे भगवन् ! परिहारविशुद्धि का काल कितना है? हे गौतम! जघन्य से बीस पृथक्त्व वर्ष तथा उत्कृष्ट से दो पूर्वकोटि वर्ष हैं। सामायिक तथा यथाख्यातचारित्र इन गाथाओं में सामायिक आदि चारित्र का काल वर्णन नहीं किया गया इसका क्या कारण है? क्योंकि सामायिक चारित्र तथा यथाख्यातचारित्र महाविदेह में अविच्छिन्न रूप से वर्तते हैं - अर्थात् इनका किसी भी काल में अभाव न होने से इनका अन्तर जघन्य या उत्कृष्ट काल नहीं होता हैं। सूक्ष्मसम्पराय चारित्र - सूक्ष्मसम्पराय चारित्र का जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण ही जानना चाहिये।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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