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सत्पदप्ररूपणाद्वार
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इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों को पूर्णतः प्राप्त नहीं कर लेते तब तक वे करण अपर्याप्त कहे जाते हैं।
३. लब्धिपर्याप्त- जिन्हें पर्याप्त नामकर्म का उदय हो तथा जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, उससे पहले नहीं, उन्हें लब्धि पर्याप्त कहा जाता है।
४. करणपर्याप्त - जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण की है, परन्तु इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की हैं, वह भी किसी अपेक्षा से करण अपर्याप्त ही कहा जा सकता है। वह शरीर रूप करण पूर्ण करने से 'करणपर्याप्त' और इन्द्रिय रूप करण पूर्ण न करने से 'करणअपर्याप्त' कहा जा सकता हैं। इस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की दृष्टि से आहार पर्याप्ति से लेकर मनः पर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति के पूर्ण होने पर 'करणपर्याप्त तथा उत्तरोत्तर पर्याप्ति के पूर्ण न होने से 'करण-अपर्याप्त' कह सकते हैं। परन्तु जब जीव स्वयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है तभी उसे 'करण-पर्याप्त' कहा जाता है। (कर्मग्रन्थ ४ गाथा ३ का परिशिष्ट)
पर्याप्ति
आहारसरीरिंदियपज्जती आणपाण भासमणे 1
चारि पंच छप्पिय एगिंदियदि गलसण्णीणं ।। २५ ।।
गावार्थ - १. आहार, २. शरीर, ३. इन्द्रिय, ४. श्वासोच्छ्वास, ५. भाषा और ६. मन ये छः प्रकार की पर्याप्तियाँ हैं। इनमें से चार पर्याप्त एकेन्द्रिय को, पाँच पर्याप्ति विकलेन्द्रिय को तथा छः पर्याप्ति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव को होती है।
विवेचन -- पर्याप्ति किसे कहते हैं? पुगल को ग्रहण कर उसका तद्रूप परिणमन करना पर्याप्ति है। यह छः प्रकार की है
१. आहार पर्याप्ति- उत्पत्ति स्थान में ग्रहण किये हुए आहार का रसादि के रूप में परिवर्तित करने वाली शक्ति को आहारपर्याप्ति कहते हैं।
२. शरीरपर्याणि - आहार से रस, खून, मांस, मेद (चर्बी), हड्डी, मज्जा, तथा शुक्र बनाकर शरीर रचना करने वाली शक्ति को शरीरपर्याप्ति कहते हैं। ३. इन्द्रिय पर्याप्ति-शरीर रचना के क्रम में इन्द्रियों को बनाने वाली शक्ति इन्द्रियपर्याप्ति कही जाती हैं।
४. श्वासोच्छवासपर्याप्ति श्वासोच्छवास लेने की क्षमता का विकसित हो जाना श्वासास पर्याप्त हैं।