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________________ जीवसमास ३. मिन गुणस्थान (सभ्य-मिथ्यादष्टि गुणस्थान)-- व्यामिश्र अर्थात् अच्छी तरह से मिश्रित दही तथा गुड़ के समान ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के मिश्रित भाव को सम्यक्-मिथ्यात्व जानना चाहिए। यह गुणस्थान आत्मा की मिश्रित अवस्था का परिचायक है। इस अवस्था में जीव सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व के मध्य झूलता रहता है। उसमें सद्-असद् का संघर्ष चलता रहता है। यदि जीव का सद् पक्ष प्रबल ही जाता है तो वह सम्यक्-दर्शन प्राप्त कर लेता है और यदि असद् पक्ष प्रबल हो जाता है तो वह मिथ्यात्व में चला जाता है। इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त है। अड़तालीस मिनिट की समयावधि को एक मुहूर्त कहा जाता हैं। अन्तर्मुहूर्त की समयावधि कम से कम एक समय तथा अधिक से अधिक एक समय कम अड़तालीस मिनट होती है। सामान्यतया यह गुणस्थान पतनोन्मुख जीवों को होता हैं किन्तु जिन जीवों ने एक बार सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है, वे सम्यक्त्व के वमन (त्याग) के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त कर, पुनः विकासक्रम में इस गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। ४. अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान -दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षय या क्षयोपशम करके जीव सम्यक्-दृष्टि बनता है। इस जीव को जिनोक्त तत्त्व पर श्रद्धा तो होती है परन्तु वह पाँच इन्द्रियों के विषयों के सेवन से तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं हो पाता। उसका ज्ञानात्मकंपक्ष या मनोभूमिका सम्यक् होने पर भी आचरणात्मक पक्ष मिथ्या ही होता है। वह सत्य को समझते हुए भी असत्य को छोड़ नहीं पाता। वे उस अपंग व्यक्ति की भांति होते हैं, जो सत्यमार्ग को देखते हुए भी उस पर चल नहीं पाते। जैन दर्शन के अनसार अविरत सम्यक-दृष्टि जीव जब निम्न सात प्रकृतियों का उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय कर लेता है तब वह सम्यक्-दृष्टि कहलाता है- १. अनन्तानुबंधी क्रोध, २. अनन्तानुबंधी मान, ३. अनन्तानुबंधी माया, ४. अनन्तानुबंधी लोभ, ५, मिथ्यात्वमाह, ६. मिश्रमोह तथा ७, सम्यक्त्वमाह। जब साधक इन सातों प्रकृतियों को पूर्णत: नष्ट कर देता है तब क्षायिक सम्यक्त्व और जब सातों प्रकृतियों को दबा देता है तब औपशमिक सम्यक्त्व तथा जब सातों प्रकृतियों या उनके अंशों में से कुछ को दबा देता है तथा कुछ को नष्ट कर देता है, तब वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। क्षायिक सम्यक्त्व अनन्त काल तक, क्षायोपशभिक सम्यक्त्व अधिकतम छियासठ सागरोपम तक तथा औपरामिक सम्यक्त्व अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। वत ग्रहण न कर पाने के कारण वह अविरत तथा सम्यक्-दर्शन प्राप्त कर लेने के कारण सम्यक्-दृष्टि, इस प्रकार अविरत सम्यक्-दृष्टि कहलाता है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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