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सत्पदप्ररूपणाद्वार
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द्रव्यवेद शारीरिक संरचना को और भाववेद तत्सम्बन्धी कामवासना को कहते हैं। यह वासनाजन्य भाव कहाँ तक बने रहते हैं, उसका उत्तर जीवसमास की गाथा ६० में दिया गया है।
दसवें गुणस्थान में कामवासनाजन्य भावों का अभाव होता है क्योंकि वेद अर्थात् कामवासना का अन्त नवें गुणस्थान में ही हो जाता है, उसके पश्चात् मात्र द्रव्यलिंग अर्णत छापरीरिक संरचना है तुज भाल नहीं रहते हैं ।
सूक्ष्मलोभ को छोड़कर अन्य कषाय भी अनिवृत्तिबादर सम्पराय नामक गुणस्थान तक ही होते हैं, अर्थात् तीनों वेद तथा तीनों कषाय नवें गुणस्थान तक ही रहते हैं उससे आगे नहीं । वेदत्रिक और कषायत्रिक का उदय नवे गुणस्थान में समाप्त हो जाता है । ( कर्मग्रन्थ २ / १८, १९) ।
ज्ञान मार्गणा
आभिणिसुओहिमणकेवलं व नाणं तु होइ पंचविहं ।
उग्गह ईह अवाय धारणाऽऽभिणिवोहियं धउहा ।। ६१ ।।
गाथार्थ – आभिनिबोधिकज्ञान ( मतिज्ञान), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यव ज्ञान तथा केवलज्ञान- ये पाँच प्रकार के ज्ञान हैं। आभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान भी चार प्रकार का हैं- १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा ।
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विवेचन
१. मतिज्ञान - अभि अर्थात् सम्मुख रहे पदार्थ का जो बोध कराये वह आभिनिबोधिकज्ञान ( मतिज्ञान) है।
२. श्रुतज्ञान- सुनकर अथवा शास्त्र को पढ़कर जो ज्ञान हो वह श्रुतज्ञान हैं। ३. अवधिज्ञान- इन्द्रियों की सहायता के बिना एक निश्चित अवधि ( सीमा क्षेत्र) तक की भौतिक वस्तुओं का ज्ञान होना अवधिज्ञान हैं।
४. मनः पर्यवज्ञान - इन्द्रियों की सहायता के बिना संज्ञी जीव के मनोगत भावों को जान लेना मनः पर्यवज्ञान है।
५. केवलज्ञान - जो ज्ञान परिपूर्ण हैं, जिसमें त्रिकाल, त्रिलोक का बोध एक समय में हो जाता है तथा जो आत्मद्रव्य के पूर्णतः निर्मल होने पर होता हैं, वह ज्ञान केवलज्ञान हैं।
पंचहिदि इंदिएहिं मurer अस्थोग्गहो मुणेथयो । चक्खिदिग्रमणरहि वंजणमीहाइयं छ५ ।। ६२ ।।