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________________ 232 जीवसमास तथा वियोग होने की योग्यता है। ज्ञातव्य है कि कालाणु सदैव स्वतन्त्र होते है, उनमें संयोग वियोग नहीं है। आकाश के प्रदेश तो निश्चित रूप से अनन्त ही होते हैं। (अल्प-बहुत्व को विस्तार से जानने हेतु देखें प्रज्ञापनासूत्र पद 198. से 283) मभंगविहिवाए विठ्ठत्वाणं जिणोवाहाणं। धारणपसही भुग आपसमासस्यउपरतो / / 985 / / जीव समास के अर्थ को समझने वाला सजग साधक जिनोपदिष्ट एवं विविध अपेक्षाओं से कथित दृष्टिवाद के द्रष्टार्थ (वास्तविक अर्थ) का धारक विशिष्ट शाता बन जाता है। फल प्राप्ति एवं जीवाजीवे वित्यरभिहिए समासनिहिडे / उपउत्तो जो गुणए तस्स मई जायए विउला / / 286 / / गाथार्थ-आगम में विस्तार से वर्णित जीव एवं अजीव तत्त्व का यहाँ संक्षेप में विवेचन किया गया हैनोइस जीव समास का सजग होकर चिन्तन करता है, उसकी मति (बुद्धि) विपुल होती है। आठवाँ अल्पवाहत्व-बार समाप्त जीवसमास सम्पूर्ण
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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