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काल-द्वार
मरण प्राप्त करता है तब उसका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त होता है तथा उत्कृष्ट काल कुछ अधिक हजार सागरोपम पश्चन्द्रिय तिर्वज्ञ एवं नारक की अपेक्षा से कहा है।
७. संझी-प्रज्ञापना (सूत्र १३८९) में पूछा गया है भगवन् ! संज्ञी पर्याय का काल कितना है?
हे गौतमः जघन्यत; अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः कुछ अधिक सागरोपम पृथक्त्व काल है।
८. आहारक-प्रज्ञापना (सूत्र १३६४) भगवान ने इस प्रश्न का कि आहारक जीव का काल कितना है? उत्तर देते हुए कहा है -
हे गाँत्तम ! जघन्यतः दो समय कम क्षुद्र भव ग्रहण जितना काल तथा उत्कृष्टत: असंख्यात काल तक जानना चाहिये।
१. कषाय – जीवसमास (गाथा २३१) के अनुसार कषाय का काल जघन्यत: तथा उत्कृष्टत; अन्तर्मुहुर्त बतलाया गया है। प्रज्ञापना (सूत्र १३५२) में क्रोध, मान, माया को उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कही गई हैं परन्तु लोभ की स्थिति जघन्यत: एक समय तथा उत्कृष्टत: अन्तर्मुहूर्त कही है।
गाथा में तो मात्र जघन्य काल की चर्चा है, किन्तु विवेचन में जघन्य एवं उत्कृष्ट दोनों की ही चर्चा कर दी गई है। गुणों का जघन्य काल (एक समय)
मणवठरलविउव्विय आहारमकम्म जोग अणरित्थी। संजमविभागविन्भंग सासणे एगसमयं तु ।। २३६।।
गाथार्थ- मनोयोग, वचनयोग, औदारिक काययोग, वैक्रिय काययोग, आहारक काययोग, कार्मण काययोग, नपुसकवेद, स्वीवेद, संयम के पाँचों प्रकार, विभङ्गज्ञान तथा सास्वादन गुणस्थान इन सभी का जघन्य काल एक समय परिमाण है।
विवेचन- गाथा में आए हुए “जोग' शब्द की उसके पूर्व में आये हुए शब्दों के साथ योजना करनी चाहिये।
१. मनोयोग-कोई गर्भज पञ्चेन्द्रिय मनः पर्याप्ति पूर्ण करते ही मरण को प्राप्त करे तो उसे एक समयवर्ती मनोयोग होगा।
२. वचनयोग- कोई जीव भाषा पर्याप्ति पूर्ण करके एक समय बाद मरण को प्राप्त करे तो उसे एक समयवर्ती वचनयोग होगा।