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________________ जीवसमास प्रज्ञापना के सूत्र क्रमांक १३२२.२३ मं भी मनायोग तथा वचनयोग का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्टकाल अन्नर्मुहूर्त बताया गया है। ३. औदारिक कायद्योग- आटापिक शरीर वाला वैक्रिय शरीर की रचना के पश्चात् जब आदारिक शरीर प्राप्त करके एक समय बाद ही मरण को प्राप्त हो जाय या पुनः वैक्रिय शरीर बनाये तो उसका औदारिक काययोग का जघन्य काल एक समय होगा। इसी प्रकार वायुकाय के जीव वैक्रिय शरीर का त्याग कर औदारिक शरीर प्राप्त करके पुनः एक समय के बाद ही वैनिय शरीर को अथवा मरण को प्राप्त हो तो उनके भी औदारिक काययोग का जघन्यकाल एक समय होता है। ४. वैक्रिय काययोग-काई जीव औदारिक शरीर से एक समय के लिए वैक्रिय शरीर प्राप्त कर पुनः औदारिक शरीर में आ जाये तो उनके वैक्रिय काययोग का काल मात्र एक समय का होता है। ५. आहारक काययोग-चौदह पूर्वधर मुनि आहारक शरीर बनाकर कार्य सिद्धि के काल में मनोयोग एवं वचनयोग पूर्ण करने बाद एक समय तक आहारक काययोग का अनुभवन करके पुनः औदारिक शरीर स्वीकार करते हैं तो उनके आहारक काययोग का जघन्य काल एक समय होता है। सामान्यतया आहारक काययोग का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया गया है। ६. कार्मण काययोग-विग्रहगति कर रहे जीव का एक या दो समय का अनाहारक काल ही कार्मण काययांग का जघन्य काल होता है। ७. नपुंसक वेद गाथा में 'अणर' शब्द आया है इसका अर्थ है जो नर नहीं है अर्थात् नपुंसक है। प्रज्ञापना (सूत्र १३२९) में प्रश्न किया गया है कि है भगवन् ! नपुंसक वेद का काल कितना होता है? हे गौतम ! जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से वनस्पतिकाय की कायस्थिति पर्यन्त जीव नपुंसक वेद में रह सकता है। कोई जीव नपुंसक आदि तीनो वेदी का उपशम करने के पश्चात् पुनः एक समय तक नपुंसक वेद को प्राप्त कर मरण प्राप्त करे तो उसके नपुंसक वेद का जघन्य काल एक समय होता है। ८. स्त्रीवेद-प्रज्ञापनासत्र (सूत्र १३२७) में यह पूछा गया है कि हे भगवन्! स्त्रीवेद का काल कितना है? गौतम ! स्त्रीवेद का काल जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से पूर्वकोटि अधिक पल्योपम तक होता है। .. १. संपम- संयम अर्थात् चारित्र के पाँच प्रकार हैं १. सामायिक, २. छेदोपस्थापनीय, ३. परिहारविशुद्धि, ४, सूक्ष्मसम्पराय तथा ५. यथाख्यात! प्रज्ञापना (सूत्र १३५८) में पूछा गया है कि हे भगवन् ! संयम का काल कितना हैं? हे गौतम ! जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से देशोन कोटि पूर्व वर्ष तक का है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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