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________________ ९० जीवसमास एवं एसो कालो वासच्छेएणं संखमुवयाइ। तेथा परमसंखेज्जो कालो उवधाए नायब्यो । । ११३३ । गार्थ इस प्रकार को से यह कात संख्या बनती हैं, इसे संख्यात काल कहा गया है। इसके बाद के काल को असंख्यात कहा जाता है उस असंख्यात काल को उपमाओं से जानना चाहिये । विवेचन अभी तक काल की वर्षों की संख्या मे गिनती सम्भव थी। इसके बाद काल में संख्या का व्यवहार न होने के कारण उसे असंख्य कहा गया है। उस असंख्य काल को अब उपमाओं के माध्यम से समझाया जावेगा । पलिओदमं च तिविहं उहारऽद्धं च खेनपलियं च । - एक्केक्कं पुण दुविहं वायर सुरुमं च नायव्वं । । ११७ । । गाथार्थ - उद्धार, अद्धा तथा क्षेत्र- ये तीन प्रकार के पल्योपम हैं। इनके प्रत्येक के स्थूल तथा सूक्ष्म ऐसे दो-दो मेद जानना चाहिये । पोपम निरूपण जं जोयणविच्छिण्णं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तं चैव य इविन्द्धं पल्लं पलिओदमं नाम । । ११८ ।। एगाहियवेहियतेहियाण उक्कोस सतरत्ताणं । सम्म संनिचियं भरियं वालग्गकोडीणं । । ११९ ।। गाथार्थ - एक योजन विस्तार वाला अर्थात् एक योजन लम्बा तथा उतना ही चौड़ा एवं तीनयोजन से कुछ अधिक परिधि (घेरे) वाला तथा एक योजन गहरा गोलाकार कुंआ पल्य कहा जाता है। उस कुँए को एक दिन, दो दिन, तीन दिन या अधिक में अधिक सात दिन के बालक के बालायों से अच्छी तरह से दबा-दबा कर भरना। विवेचन - एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा (ऊंचा ) तीन योजन से अधिक परिधिवाला एक पल्य हो, उस पल्य में एक दिन के, दो दिन के, तीन दिन के तथा अधिक से अधिक सात दिन के बालकों के बालाग्र किनारे तक इस प्रकार उसाट्स अत्यन्त दबा-दबाकर मरे गये हों कि उनपर चक्रवर्ती की सेना भी निकलजाये पर वे दबे नहीं। वे इतने सघन हो कि उन बालानों को न अग्नि जला सके, न हवा उड़ा सके। वे बालाय उड़े नहीं, ध्वस्त न हों, दुर्गंधित न हों। इसके पश्चात् उस पल्य में से एक-एक बालान को क्रमशः प्रति समय निकाला जाय, जब तक कि वह पल्य पूरी तरह से खाली या निर्लेप हो
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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