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________________ जीवसमास पृथ्वीकाय आदि में लेश्या पुरविंदगहरिय भवणे वण जोइसिया असंखनर तिरिया। सैसेगिंदियषियला तियलेसा भावलेसाए ।।७१।। गाथार्य-पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय, भवनपति, व्यन्तर, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्य तथा मनुष्य को कृष्ण, नील, कापोत तथा तेजस् ये चार लेश्याएं हो सकती है। ज्योतिष्क देवों में तेजोलेश्या ही होती है। शेष एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों में कृष्ण, नील एवं कपोत ये तीन लेश्याएँ भावरूप में होती हैं। विवेधन-प्रश्न यह उठता है कि गाथा के पूर्वार्द्ध भाग में चार लेश्याओं के नाम का उल्लेख न होने पर भी चार लेश्याएँ किस आधार पर ग्रहीत की गई हैं। इसका उत्तर यह है कि गाथा के पूर्वार्द्ध में चार लेश्याओं का उल्लेख न होने पर भी उत्तरार्द्ध में तीन लेश्याओं के उल्लेख को देखकर पूर्वार्द्ध में चार लेश्याओं का अध्याहार कर लिया गया है। प्राचीन ग्रन्थों में तेजस्काय और वायुकाय में तीन लेश्याएं बताई गयी हैं अत: पृथ्वीवाय, अप्लाय आटि में पलेपणा मान लेनी चाहिये। दूसरा प्रश्न यह है कि अग्निकाय एवं वायुकाय में मात्र द्रव्यलेश्या मानना या भावलेश्या मानना? ग्रन्थकार ने अन्त में भावलेश्या शब्द का उल्लेख करके द्रव्य एवं भाव दोनों लेश्याओं की ओर संकेत किया है। मात्र अपर्याप्तावस्था में पूर्वार्द्ध में कहे अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय में चौथी तेजस् द्रव्य लेश्या जानना, क्योंकि पृथ्वीकाय, अपकाय तथा वनस्पतिकाय में भवनपति व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्मादि प्रथम दो देवलोक के देव च्वय कर उत्पन्न हो सकते हैं। देवगति में उन्हें तेजस् लेश्या होती है अत: तीनों एकेन्द्रियों की अपर्याप्तावस्था में चौथी तेजस् लेश्या भी बताई गई है। सामान्यतया तो संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज मनुष्य एवं तिर्यश्च द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा से छहों लेश्या वाले होते हैं और संमूर्छिम मनुष्य तथा संमच्छिम तिर्यञ्च कृष्णादि तीन अशुभ लेश्यावाले होते हैं किन्तु अधिकतर मनुष्यों को कृष्णादि चार लेश्या होने के कारण गाथा में उपलक्षण से चार लेश्याओं का उल्लेख हुआ है। सात नरकों में लेश्या का प्रतिपादन काऊ काळ सह काउनील नीला य नीलकिण्हा में । किण्हा य परमकिण्हा लेसा रमणप्पभाईणं ।।७२।। गाथार्थ- कापोत, कापोत, कापोतनील, नील, नील-कृष्ण, कृष्ण तथा परम-कृष्णा लेश्याएँ क्रमशः रलप्रभादि सात नरकों में होती हैं।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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