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सत्पदप्ररूपणाद्वार
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विवेचन - प्रथम रत्नप्रभा नरक में कापोत लेश्या होती हैं दूसरी शर्कराप्रभा में क्लिष्टतर कापत संस्था होती है। तीसरी बालुकान के ऊपरी भाग में लितम कापोत लेश्या तथा नीचे के भाग में नील लेश्या होती हैं। चौथी पंक प्रभा में नीलतर लेश्या होती हैं। धूमप्रभा (पांचवीं) नरक के ऊपरी प्रत्तर में नीललम तथा नीचे के अंतर में कृष्ण लेश्या होती है। छठी तमप्रभा में कृष्णतर तथा सातवीं तमप्रभा में कृष्णतम लेश्या होती है।
उक्त सातों नारकों मे सातों द्रव्य लेश्या जानना चाहिए। भाव लेश्या तो सातों नरक में छह ही है। क्योंकि सप्तम नरक में भी सम्यग्दर्शन का सद्भाव है तथा सम्यग्दर्शन के सद्भाव में तेजोलेश्यादि तीन शुभ लेश्याएँ भी पाई जाती हैं। वैमानिकों में लेश्या निरूपण
तेक तेऊ तह तेऊ पम्ह पम्हा य म्हसुक्का य ।
सुक्का य परमसुक्का सक्कादिविमाणवासीणं ।। ७३ ।।
गाथार्थ - तेजोलेश्या, तेजोलेश्या, तेजोपद्म, पद्य, पद्म शुक्ल, शुक्ल तथा परमशुक्ल लेश्या शक्रादि विमानवासियों में क्रमशः होती हैं।
विवेचन - शक्र अर्थात् सौधर्म देवलोक में तेजोलेश्या है। ईशान में कुछ विशुद्धतर तेजोलेश्या हैं। सनत्कुमार मे कुछ देवों को तेजलेश्या तथा कुछ ऊपर वालों को पद्मलेश्या है। माहेन्द्र देवलोक में मात्र पद्मलेश्या है। ब्रह्मदेवलोक में कुछ को पद्म तथा कुछ को शुक्ल लेश्या है। लान्तक से अच्युत तक तथा नवग्रैवेयक में शुक्ललेश्या हैं क्रमश: ऊपर के देवलोकों में शुक्ललेश्या विशुद्धतर होती जाती है। अनुत्तरविमान में परम शुक्ललेश्या होती है।
द्रव्य एवं भाव लेश्या
देवाण नारयाणं दव्वल्लेसा हवंति एयाउ ।
भवपरितीए उण नेरहयसुराण छल्लेसा । १७४।।
गावार्थ- देव तथा नारकी जीवों के सम्बन्ध में पूर्वगाथा में जो लेश्याएँ बताई गई हैं वे द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से हैं। परन्तु इन जीवों में भाव परिवर्तन होता रहता है अतः देवों तथा नारकी जीवों में छहों भाव लेश्याएँ सम्भव हैं।
विवेचन - पूर्व गाथाओं में देवों तथा नारकी जीवों की जिन लेश्याओं का कथन किया गया है वे द्रव्य लेश्याएँ हैं। भावलेश्या तो देवों तथा नारकी जीवों दोनों को ही छह-छह हो सकती हैं।