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________________ ६२ भव्य एवं गुणस्थान जीवसमास ११. भव्य मार्गणा मिच्छद्दिहि अभव्या भवसिद्धीया स सव्यंठाणे 1 सिद्धा नेव अभव्या नवि भव्या हुति नाव्वा ।।७५।। गाथार्थ - अभव्य जीवों को मात्र एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । तदभव में सिद्ध होने वाले जीवों को सभी गुणस्थान सम्भव हैं। सिद्ध जीव न भव्य होते हैं न अभव्य होते हैं- ऐसा जानना चाहिये । विवेचन - अभव्य जीव कभी भी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करते हैं अतः वे सदैव मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में ही रहते हैं। उसो भव में मोक्ष जाने वाले जीवों में मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। सिद्ध आत्माएँ न भव्य होती हैं न अभव्य, क्योकि मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता के आधार पर ही जोष को भव्य का अपव्य कहा जाता है। मुक्ति प्राप्त होने के पश्चात् जीव न भव्य रहता है और न अभव्य । सिद्धि के बाद तो वह सिद्ध कहलाता है। अतः सिद्ध भव्य अभव्य दोनों ही कोटियों से परे हैं। १२. सम्यवस्व मार्गणा मझ्सुयनाणावरणं दंसणा मोहं च तदुवघाईणि । तप्फङ्कुगाई दुविहा सव्वदेसोवघाईणि ।। ७६ ।। गाथार्थ - मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण तथा दर्शनमोहनीय ये तीनों सम्यग्दर्शन के उपघातक हैं। इनके स्पर्धक दो प्रकार के हैं- देशघाती तथा सर्वघाती । प्रश्न – मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण क्रमशः मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान को आवरित करते हैं, फिर उन्हें सम्यग्दर्शन का घातक क्यों कहा गया? उत्तर - सम्यग्दर्शन के होने पर ही मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान होते हैं तथा सम्यग्दर्शन के अभाव में ये दोनों ज्ञान अज्ञान रूप होते हैं। मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शन के सहचारी होने से ऐसा कहा गया है, क्योकि जो एक का घातक है वही दूसरे का भी घातक होता है। मूल में सम्यग्दर्शन का उपघातक तो दर्शनमोहनीय ही हैं। इन तीनों के कर्म परमाणुरूप स्कन्धों के रस समूह को स्पर्धक कहा गया है। यह स्पर्धक दो प्रकार के होते हैं, देशघाती तथा सर्वघाती । जो स्पर्धक स्वयं के ज्ञानादि गुण को सम्पूर्ण रूप से हनन करे, वे सर्वघाती तथा जो शानादि गुणों का आंशिक रूप से हनन करे, वे देशघाती हैं।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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