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षट्खण्डागम का जीवस्थान और जीवसमास
-- पं. हीरालाल जी शास्त्री
षट्खण्डागम मुलतः यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है, किन्तु आज वह दिगम्बर परम्परा में आगम तुल्य ग्रन्थ के रूप में मान्य है और उस पर लिखी गई धवला और टीका आज दिगम्बर जैन समाज का आधारभूत ग्रन्थ है। प्रस्तुत लेखांश दिगम्बर जैन परम्परा के वरिष्ठ विद्वान पं० हीरालालजी शास्त्री की षट्खण्डागम की भूमिका से लिया गया है। इसमें आदरणीय पण्डित जी ने यह प्रतिपादित किया है कि षट्खण्डागम के जीवस्थान का उपजीव्य जीवसमास रहा है। - सम्पादक
घट्खण्डागम के जीवस्थान का आधार जीवसमास
पखण्डागम के छह खण्डों में पहला खण्ड जीवस्थान है। इसका उद्गम धवलाकार ने महाकम्मपयडिपाहुड के छठे बन्धन नामक अनुयोगद्वार के चौथे भेद बन्धविधान के अन्तर्गत विभिन्न भेद-प्रभेद रूप अवान्तर अधिकारों से बतलाया है, यह बात हम प्रस्तावना के प्रारम्भ में दिये गये चित्रादियों के द्वारा स्पाट कर चुके हैं। जीवस्थान का मुख्य विषय सन्, संख्यादि आठ प्ररूपणाओं के द्वारा जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन करना है। इसमें तो सन्देह ही नहीं कि जीवस्थान का मूल उदगमस्थान महाकम्मपडिपाहुए था ओर यत: कर्मबन्ध करने के नाते उसके बन्धक जीव का जबतक स्वरूप, संख्यादि न जान लिए जावें, तबतक कर्मों के भेद-प्रभेदों का और उनके स्वरूप आदि का वर्णन करना कोई महत्त्व नहीं रखता, अत: भगवत् पुष्पदन्त में सबसे पहले जीवों के स्वरूप आदि का सत्, संख्यादि अनुयोगद्वारों से वर्णन करना ही उचित समझा। इस प्रकार जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की रचना का श्रीगणेश हुआ।
पर जैसाकि मैंने वेदना और वर्गणाखण्ड में आई हुई सूत्र-गाथाओ के आधार पर षट्खण्डागम से पूर्व-रचित विभिन्न ग्रन्थों में पाई जाने वाली गाथाओं *. पट्खण्डागम, सम्पा०- ब्र०प०सुमतिबाई शहा, श्री श्रुतभांडार व अन्य प्रकाशन
समिति, फलटण, १९६५ की पं० हीरालाल शास्त्री की प्रस्तावना' से साभार।