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________________ परिमाण-द्वार १४१ उपसंहार एवं जे जे भाषा जहिं जहिं हुति पंचसु गईसु । ते ते अणुमज्जिता दवपमाणं नए घोरा ।।१६६ ।। सिन्नि खलु एक्कयाई अवासमया व पोग्गलाऽणता। दुन्नि असंखेज्जपएसियाणि सेसा मधेऽणता।। १६७।।प्रमाणद्वारं- २ गाथार्थ-जिस प्रकार से पांचों गलियों मे जो-जो भाव जहाँ-जहाँ होते हैं उन-उन पर विचार करके (अणुमज्जिता) बुद्धिमानों को द्रव्य परिमाण जानना चाहिये धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय ये तीनो ही द्रव्य एक-एक हैं। जबकि अद्धासमय रूप काल तथा पुद्गलास्तिकाय द्रव्य अनन्त हैं। प्रदेश से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों असंख्यात है तथा रोष तीनो अर्थात् आकाश, कान तथा पुद्गल अनन्त हैं। विवेचन-इस प्रकार की चर्चा पूर्व गाथाओ में किये गए हैं उन पर गहराई से विचार करके बुद्धिजीवियों को द्रव्य परिमाण को जानना चाहिये। तीनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं पर धर्माधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्य हैं तथा शेष तीनों द्रव्य अनन्त है। इनमें आकाशास्तिकाय की व्याप्ति तो लोकालोक दोनी में हैअलोकाकाश अनन्त है अत: आकाश के प्रदेश भी अनन्त हैं। पुद्गल में भी द्वयणुक, त्रयणुक, चतुरणुक यावत् अनन्तानन्त अणुक है। आगे की गाथाओं में भी इन द्रव्यों की विस्तार से चर्चा करते हुए काल को संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेशी कहा हैं। __काल को आपने अनन्त प्रदेशी कहा, वह कैसे? तत्त्वार्थकार ने अध्याय ५ के ३९ वें सूत्र में कहा है- "सोऽनन्तसमयः" वह (काल) अनन्त समय वाला है। पर इससे पूर्व ही सूत्र में उन्होंने कहा है “कालश्चेत्येके' कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते है अर्थात् सभी आचार्यों ने एकमत से काल को द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं किया है, किसी-किसी ने किया है और वह काल अतीत, वर्तमान तथा अनागत के कारण अनन्त पर्यायवाला होता है। ये भूत, वर्तमान व भविष्य की पर्याय भी प्रदेश रूप में ही गिनी जायेगी। अनन्तकाल से यह काल द्रव्य था और अनन्तकाल तक चलेगा इससे इसका अनन्त प्रदेशी होना स्पष्ट परिलक्षित होता है। द्वितीय परिमाण-हार समाप्त
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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