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________________ जीवसमास कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्वरूप में अवस्थित होने का प्रयास तो करता है लेकिन देहभाव या प्रमाद उसमें अवरोध उपस्थित करता है। अत: इस अवस्था में पूर्ण आत्म-जागृति संभव नहीं होती। इसलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलन या उपशमन करना होता है और जब वह उसमें सफल हो जाता है तब वह विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। ७. अप्रपत्तसंयत गुणस्थान--जो व्यक्त और अव्यक्त रूप से समस्त प्रकार के प्रमाद से रहित हैं, साधना के क्षेत्र में महाव्रत तथा मूलगुण और उत्तर गुणों से मण्डित हैं, स्व-पर के ज्ञान से युक्त है जो कषायों को दबाते या उपशम करते हुए या क्षय करते हुए ध्यान में लीन रहता हे वह अप्रमत्तसयत गुणस्थानवत्ती होला हैं। विशेष यहकि पांचवें गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थान मात्र मनुष्यों को ही होते हैं और सातवे से ऊपर के सभी गुणस्थान उत्तमसंघनन के धारक तथा मोक्षगामी जीवों को ही होते हैं। सातवें गुणस्थान से ऊपर दो श्रेणियाँ होती हैं- १. उपशमश्रेणी एवं २. क्षपकश्रेणी, सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है। आत्म-साधना में सजग वे साधक ही इस वर्ग में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीत भाव से युक्त हो आत्मस्वरूप में रमण करते हैं। फिर भी दैहिक उपाधियाँ विचलन तो पैदा करती ही हैं, अतः इस गुणस्थान में साधक का निवास मात्र अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है। इस गुणस्थान की उपमा घड़ी के पैण्डुलम से या झूले से दी गयी है। संयम या पंचमहाव्रत स्वीकारने के बाद जो आत्मा सतत जागरूक बन आत्मलीन बनता है वह आत्मभावों की निर्मलता के कारण अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त करता है परन्तु ऐसे साधक को भी संज्वलन कषाय के उदय से बीच-बीच में बाधाएँ आती हैं। बाधा के काल को प्रमत्तसंयत तथा आत्मरमणता के काल को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा गया है। जैसे उछाले जाने पर गेंद एक बार ऊपर जाती है पर पुन: नीचे आ जाती है वही स्थिति सातवेंछठे गुणस्थानवती साधकों की है। गुणस्थान आरोहण क्रम में भी तीर्थकर आदि उच्च साधक दीक्षा के समय पहले सातवां गुणस्थान फिर छठा गुणस्थान प्राप्त करते हैं। ८. अपूर्वकरण गुणस्थान- इस गुणस्थानवी जीवों के आध्यात्मिक परिणामों में भिन्नता होती है एवं संज्वलन कषायों का उदय बना रहता है अत: इसे निवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं यहाँ निवृत्ति का अर्थ मनोभावों का वैविध्य है। इस गुणस्थान में साधक पूर्व में अप्राप्त ऐसे अपूर्व परिणामों (मनोभावों) वाला
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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