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________________ १७२ जीवसमास पर्याप्त मनुष्य तो सर्वकाल में होते हैं, किन्तु अपर्याप्त मनुष्य तो अधिकतम पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल में ही होते हैं। कभी-कभी बारह मुहूर्त तक कोई भी अपर्याप्त मनुष्य नहीं होता है, अर्थात् अपर्याप्त मनुष्य कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। शेष सभी अर्थात् नारक, तिर्यञ्च, देवता और पर्याप्त मनुष्य तो सभी कालों में होते ही हैं। इस प्रकार एकजीवाश्रित तथा सर्वजीवाश्रित भवायु की चर्चा पूर्ण हुई। (भवायुकाल सम्पूर्ण हुआ) २. कायस्थितिकाल एक्केक्कभवं सुरनारयाओ तिरिया अर्णतमवकालं । पंचिंदियतिरियनरा सतहमला भवग्गहणे ।।२१३।। गाथार्थ- देव तथा नारकों की कायस्थिति एक-एक भव की, तिर्य की अनन्त भव की तथा पश्शेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की सात-आठ भव की कायस्थिति जाननी चाहिये। विवेचन-पुन:-पुन: उस ही काय में जन्म लेना कास्थिति है। देव तथा नारक पुन: उस ही काय में जन्म नहीं लेते, अत: उनकी कायस्थिति एक ही भव की होती है। तिर्यच मरकर पुनः-पुनः तिर्यश्च बन सकते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहा है-- हे भगवन् ! तिर्यञ्च कितनी बार स्वयोनि में जन्म लेते हैं और कितने काल तक उसमें रह सकते है। हे गौतम ! जघन्य से एक भव तथा उत्कृष्ट से अनन्त भव तथा काल से अनन्त उत्सर्षिणी-अवसर्पिणी काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल तक तथा क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक में हो सकते हैं। प्रश्न- पजेन्द्रिय तिर्यश्च-पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च में तथा मनुष्य-मनुष्य में कितनी बार उत्पन्न हो सकते हैं? और कितने काल तक उसी योनि में रह सकते हैं। उत्तर- भव की अपेक्षा से तिर्यश्च तथा मनुष्य दोनों ही सात-आठ बार स्वकाय में जन्म ले सकते हैं तथा काल की अपेक्षा सात पूर्वकोटि और तीन पल्योपम जितने काल तक दोनों की स्वकाय स्थिति होती है। एकेन्द्रियादि की कापस्थिति एगिदियहरिमंति व पोग्गलपरियहवा असंखेज्जा । अगरज निओया असंखालोमा पुरविमाई ॥२१॥
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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