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________________ जीवसमास के प्रमाणों का वर्णन करने वाली गाथाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रन्थों में ज्यों की त्यों या साधारण से शब्दभेद के साथ मिलती हैं, जिनसे कि उनका आचार्य परम्परा से चला आना ही सिद्ध होता है। इन चारों प्रकार के प्रमाणों का वर्णन षट्खण्डागमकार के सामने सर्वसाधारण में प्रचलित रहा है, अत: उन्होंने उसे अपनी रचना में स्थान देना उचित नहीं समझा है। xxxvi इसके पश्चात् मिथ्यादृष्टि आदि जांवों को संख्या बतलाई गई हैं, जो दोनो ही अन्थों में शब्दश: समान है। पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ एक उद्धरण दिया जाता है— जीवसमास - गाथा मिच्छा दव्यमणंता कालेोसप्पिणी अनंताओ। खेतेण भिज्जमाणा हवंति लोगा अनंता ओ ।। १४४ । । षट्खण्डागम-सूत्र ओषेण मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता ||२|| अणंताणंताहि ओसप्पिणि उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेन ||३|| खेत्तेण अणंताणंता लोगा । । ४ । । ( षट्खण्डागम, पृ० ५४-५५) पाठकगण दोनों के विषय प्रतिपादन की शाब्दिक और आर्थिक समता का स्वयं ही अनुभव करेंगे। इस प्रकार से जीवसमास में चौदह गुणस्थानों की संख्या को, तथा गति आदि तीन मार्गणाओं की संख्या को बतलाकर तथा सान्तरमार्गणाओं आदि का निर्देश करके कह दिया गया है कि -- एवं जे जे भावा जहिं जहिं हंति पंचसु गईसु । से ते अणुमग्गित्ता दव्वयमाणं नए धीरा ।। १६६ ।। अर्थात् मैंने इन कुछ मार्गणाओं में द्रव्यप्रमाण का वर्णन किया हैं, तदनुसार पांचों ही गतियों में सम्भव शेष मार्गणास्थानों का द्रव्यप्रमाण धीर वीर पुरुष स्वयं ही अनुमार्गण करके ज्ञात करें। ऐसा प्रतीत होता है कि इस संकेत को लक्ष्य में रखकर ही षट्खण्डागमकार ने शेष ११ मार्गणाओं के द्रव्यप्रमाण का वर्णन पूरे ९० सूत्रों में किया है। क्षेत्रप्ररूपणा करते हुए जीवसमास में सबसे पहले चारों गतियों के जीवों के शरीर की अवगाहना बहुत विस्तार से बताई गई है, जो प्रकरण को देखते
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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