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________________ २११ अन्तर-द्वार तक अन्तराल हो सकता है। उपशामकी का वर्ष पृथक्त्व तथा आपका का छ: मास नक उत्कृष्ट अन्तराल हो सकता है। विवेचन- सास्वादन द्वितीयगुणस्थानवर्ती, मिश्र तृतीय गुणस्थानवती तथा असंज्ञी मनुष्य अर्यात् जो लब्धि तथा करण से सदा अपयःप्त रहत है ऐसे संमच्छिम मनुष्य इन तीनों राशियो (वर्गों) का समस्त लोक में पल्यापम के असंख्यात 'माग तक पूर्णतः अपाय हो सकता है। उपशामक-जो मोहनीय-कर्म को उपशमित करे. ऐसे उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले जीवों का उत्कृष्ट अन्तर-काल वर्ष पृथक्त्व (१ से ९ वर्ष तक) जानना चाहिये। क्षपक- लोक में कभी-कभी अधिकतम छ: मासपर्यन्त से क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाले जोबों का अभाव हो सकता है। अयोगी केवलो का अन्तराल भी उत्कृष्टतः छ: मासापर्यन्त जानना चाहिये। मिथ्याष्टि, अविरत सम्यक्-दृष्टि. प्रमनस्यत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगी केवलो का विरह-काल (अन्तराल) नहीं होता है। उपरोक्त गुणस्थानवती जीन लोक में सदा रहते ही है। संमूर्छिम मनुष्य मे मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। यहां संमृच्छिंम मनुष्य का विरहकाल बताया है न कि मिध्यादृष्टि गुणस्थान का विरहकाल। क्योकि मिथ्यादृष्टि तो सर्वकाल में होते हैं। योग आहारमिस्सजोगे वापुहुत्तं विउविमिस्सेसु। बारस हुंति मुहुत्ता सव्वेसु जहण्णओ समओ।। २६०।। गाथार्थ- आहारक मित्र काय-योग का वर्ष पृथकत्व, वैक्रियमिश्र-काय-योग का बारह मुहूर्त का अन्तर-काल होता है। शेष सभी में जघन्य से एक समय का अन्तर-काल होता है। विवेचन आहारकमिश्न- औदारिक शरीर के साथ बनने वाला आहारक शरीर आहारकमिश्र काययोग कहलाता है। आहारक शरीर बनाना प्रारंभ करने के बाद जब तक वह पूर्ण न हो जाय तब तक का काल आहारक-मिश्र-काल कहलाता है। इसमें उत्कृष्ट से वर्ष पृथकत्व (१ वर्ष से ९ वर्ष) का अन्तर होता है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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