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जीवसमास
प्रज्ञापनासूत्र में आहारकमिश्र काययोग का अन्तर- काल छः पास बताया गया हैं। तत्त्व केवलीगम्य हैं।
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मिश्र का
वैक्रिय मिश्र - कार्मण शरीर के साथ वैक्रिय शरीर का निर्माण होना वैक्रियकहरात नारक को होता है। इसका उत्कृष्ट से विरहकाल बारह मुहूर्त परिमाण है। नारक तथा देव योनियों में उत्कृष्टतः उत्पत्ति विरहकाल बारह मुहूर्त का कहा गया है।
शेष औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र काययोग, वैक्रिय काययोग, कार्मण काययोग, मनोयोग, वचनयोग का विरहकाल नहीं होता। ये योग निरन्तर लोक में पाये जाते हैं। आहारकमिश्र कहने से आहारक का अन्तर- काल स्वतः स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि आहारकमिश्र और आहारकयोग की विद्यमानता मात्र अन्तर्मुहूर्त परिमाण है।
पिछली गाथाओ के अनुसार सास्वादन गुणस्थान से लेकर बैक्रियमिश्रकाययोग तक का जघन्य अन्तर- काल एक समय का समझना चाहिये । तेवद्वी चुलसीई वाससहस्साइं छेद्यपरिहारे ।
अक्षरं परमुदहीणं अड्डारस कोडीकोडी ओ ।। २६१ । ।
गाध्यार्थ - त्रेसठ (६३) हजार वर्ष पर्यन्त छेदोपस्थापनीय चारित्र का तथा चौरासी (८४) हजार वर्ष पर्यन्त परिहारविशुद्धि चारित्र का जघन्य अन्तर काल होता है। दोनो अर्थात् छेदोपस्थापनीयचारित्र तथा परिहारविशुद्धिचारित्र का उत्कृष्ट अन्तर- काल अठारह कोटाकोटी सागरोपम है ।
विवेचन
जघन्यतः :- इस अवसर्पिणी में दुषमा नामक पांचवें आरे के अन्त में भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में छेदीपस्थापनीयचारित्र का विच्छेद (विरह) हो जाता है, अतः अवसर्पिणी के छठे आरे में वह नहीं होता हैं ।
पुनः उत्सर्पिणी के प्रथम तथा द्वितीय आरे में भी उसका अभाव रहता है। इस प्रकार इक्कीस इक्कीस हजार वर्ष के तीन आरों के काल (२१०००x३=६३०००) त्रेसठ हजार वर्ष तक इस चारित्र का अभाव ( अन्तराल ) रहता हैं।
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परिहारविशुद्धिचारित्र का अभाव तो पांचवे आरे के प्रारंभ में ही हो जाता है। अतः अवसर्पिणी का पांचवा तथा छठा आरा और उत्सर्पिणी का पहला तथा दूसरा आरा अर्थात् चौरासी हजार वर्ष (२१०००x४=८४०००) तक परिहारविशुद्धिचारित्र का अभाव रहता है।