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सत्पदप्ररूपणाद्वार
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मति श्रुत एवं अवधि ज्ञान भी मिश्रज्ञान होते हैं। सम्यक्त्व की प्राप्ति से लेकर छद्मस्थ अवस्था तक अर्थात् सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह तक मति, श्रुत तथा अवधिज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं। किसी विस्तमुनि को उक्त तीनों ज्ञानों के साथ मन:पर्ययज्ञान भी हो सकता है। सयोगी केवली एवं अयोगी केवली को स्वनामानुरूप केवलज्ञान होता है।
विवेचन - प्रथम दो गुणस्थानों में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान अज्ञानरूप होता हैं। समनस्क प्राणी के सास्वादन गुणस्थान की अवस्था में आंशिक सम्यग्दर्शन की उपस्थिति होती हैं फिर भी इसमें उसे अनुशंषा के उदय से दूषित होने के कारण अज्ञानरूप माना है। यही कारण है कि इस गुणस्थान में मात्र मन्ति, श्रुत एवं विभंग ये तीन अज्ञान ही स्वीकार किये गये हैं।
शेष गाथा का अर्थ स्पष्ट है। चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की उपस्थिति के कारण मात्र पति, श्रुत एवं अवधि ये तीन ज्ञान ही होते हैं अज्ञान नहीं। संयमी / सर्वविरत के अधिकतम चार ज्ञान एक साथ हो सकते हैं । केवली को तो मात्र केवलज्ञान होता है।
८. संयम मार्गणा
अजया अधिरयसम्या देसे विरया यहुति सणे । लामाइयछेयपरिहारसुतुमअहक्खाणो
संयम एवं गुणस्थान
विरया ।।६६ ।
गाथार्थ — अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान तक सम्यक्चारित्र होता है । देशविरति चारित्र पाँचवें गुणस्थान में ही होता है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय तथा यथाख्यातचारित्र सर्वविरत को
नहीं
होते हैं।
विवेचन
१. मिथ्यात्व सास्वादन, मिश्र तथा अविरत सम्यग्दृष्टि वाले सभी जीव - असंयत होते हैं।
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२. संयतासंयत रूप चारित्र देशविरतिगुणस्थान में होता हैं।
३. सर्वविरत संयमी को पाँचों चारित्र अर्थात् सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात होते हैं।
नोट- पाँचों चारित्रों का विस्तृत विवेचन जानने हेतु आगे गाथा १४३ की व्याख्या देखें ।