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जीवसमास २. विपुलमति मनःपर्ययज्ञान-जो मन के पर्यायों के विषय को विशेष रूप से, अधिक गहराई से जानता है वह विपुलमति मनःपर्ययज्ञान है।
ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति विशुद्धतर होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मतर विषयों को भी स्पष्टतया जानता है। ऋजुमति उत्पत्र होने के बाद कभी नष्ट भी हो जाता है पर विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्तिपर्यन्त बना रहता है। अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान का अन्तर
१. शद्ध-अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान अधिक शुद्ध है, क्योंकि अवधिज्ञान नरकादि में भी परम्त मन:पयना पत्र पाष्प को ही होगा है:
२. क्षेत्र- अवधिज्ञान का क्षेत्र सम्पूर्णलोक तक हो सकता है जबकि मन:पर्ययज्ञान का क्षेत्र मात्र मानुषोत्तर पर्वत तक है। अत: क्षेत्र की अपेक्षा इसका क्षेत्र कम है।
३. स्वामी- अवधिज्ञान के स्वामी चारों गति वाले हो सकते हैं परन्तु मन:पर्यय के स्वामी मात्र संयमी साधु ही हो सकते हैं।
४. विषय-अवधिज्ञान का विषय रूपी-द्रव्य है परन्तु मनःपर्ययज्ञान का विषय तो उस रूपी द्रव्य का भी अनन्तवाँ भाग मात्र मनोद्रव्य है।
केवलज्ञान- अकेला होता है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तीसवें सूत्र में कहा है "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यो और उनकी सभी पर्यायों में होती है।
प्रश्न-मिथ्यादृष्टि व्यक्ति के मति एवं श्रुत ज्ञान को अज्ञान क्यों कहा गया है?
उत्तर- आत्म-अनात्मविवेक के अभाव में सारे ही ज्ञान अज्ञानवत् हैं जैसे शिक्षित, सुन्दर, सम्पन्न, सत्ता एवं सम्मान को प्राप्त पुत्र भी यदि माता-पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उनका विनय नहीं करता है तो वह सुपुत्र नहीं कहलाकर कुपन ही कहलाता है। इसी प्रकार आत्मज्ञान के अभाव में ज्ञान भी अज्ञान रूप ही होता है।
ज्ञान एवं गुणस्थान
महसुव मिच्छा साणा विभंग समणे न मीसए मीसं । सम्मच्छउमाभिणिसओहि विरयमण केवल सनामे ।।५।।
गाथार्थ-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एवं सास्वादन गुणस्थान में मति तथा श्रुत अज्ञान रूप हैं। मिथ्यादृष्टि समनस्क प्राणी के अवधिज्ञान को भी विभंगज्ञान कहा जाता है। अत: प्रथम तीन ज्ञान अज्ञानरूप भी हो सकते हैं। मिश्र गणस्थान में