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________________ काल के प्रकार काल द्वार भागकालं छ । काली भवाकाई योच्छामि एक्कजीवं नाणाजीवे पशुच्या य ।। २०१ ।। गाथार्थ - काल के तीन प्रकार हैं१. भवायुकाल, २. कार्यस्थितिकाल तथा ३. गुणविभागकाल। आगे इस प्रकार के काल के तीनों विभागों का एकजीवाश्रित तथा अनेकजीवाश्रित- इन दो अपेक्षाओं से विवेचन करेंगे। विवेचन - "काल" की चर्चा पूर्व में विभाग ३ के 'परिमाणद्वार' में काल परिमाण के अन्तर्गत की जा चुकी है। वहीं काल का परिमाण एक समय से लेकर अनन्त उत्पसर्पिणी और अवसर्पिणीकाल तक बताया गया है। किन्तु यहाँ कालद्वार में १. भवायुकाल, २. कायस्थितिकाल तथा ३. गुणविभागकाल- ऐसे काल के तीन विभागों की चर्चा की जायेगी। १. भवायुकाल - प्राणी के एक भव से सम्बन्धित आयु को भवायुकाल कहा गया है। २. कापस्थितिकाल - प्राणी का पुनः पुनः उसी काया में जन्म लेना कार्यस्थितिकाल कहा गया है, यथा— पृथ्वीकाय के रूप में मरकर पुनः पुनः पृथ्वीकाय में जन्म लेने के काल को कार्यस्थितिकाल कहा गया है। ३. गुणविभागकाल - यहाँ गुण का तात्पर्य गुणस्थान है। प्रत्येक गुणस्थान में जीव जितने काल तक रहता है या रह सकता हैं, वह काल गुणविभागकाल कहलाता है। नारकी की उत्कृष्ट आयु १. भवायुकाल एगं च तिथिण सत्त य दस सत्तरसेवहुति बावीसा तेत्तीस उबहिनामा पुढची ठिई कमुक्कोसा ।। १०२ ।। गाथार्थ - एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस तथा तैतीस सागरोपम क्रमशः सातों पृथ्वियों की उत्कृष्ट भवायुकाल जानना चाहिए।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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