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________________ जीवसमास ३. दीर्घकालोपदेशिक संज्ञा-तीसरे विभाग में सुदीघंभूत काल में अनुभव किये हुए विषयों के स्मरण के द्वारा वर्तमान काल के कर्तव्यों का निश्चय किया जाता है। मन की सहायता से होने वाले इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशिक संज्ञा कहा जाता है। यह समस्त समनस्क संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में पाई जाती है। ४. दष्टिवादोपदेशिक संज्ञा-चौथे विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान द्वारा व्यक्ति में हेय, जेय और उपादेय का विवेक प्रकट हो जाता है। यह ज्ञान सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त अन्य जीवों में सम्भव रहों होता है। इस विशुद्ध ज्ञान को दृष्टिवादोपदेशिक संज्ञा कहते हैं। १४. आहारक मार्गणा विग्गहगायावना केवलियो समहया अजोगी य । सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा।।८।। गाथार्थ- विग्रहगति कर रहे जीव, केवलीसमुद्धात कर रहे केवली, अयोगीकेवली तथा सिद्ध अनाहारक होते हैं। शेष सभी जीव आहारक होते हैं। विवेचन- अनाहारक जीवों के दो प्रकार होते हैं छद्मस्थ और वीतराग। वीतराग में जो अशरीरी हैं वे सदा अनाहारक ही हैं परन्तु जो शरीरधारी हैं वे केवलीसमधात के तीसरे, चौथे तथा पाँचवें समय में अनाहारक होते हैं। अयोगी केवली भी अनाहारक होते हैं। छष्ट्वास्थ जीव अनाहारक तभी होते हैं जब वे विग्रहगति कर रहे होते हैं। तत्त्वार्थकार ने लिखा है "विग्रहगति च संसारिण: प्राक् चतुर्य: (तत्त्वार्थ २/२९) "एकं द्वौ वानाहारक; (तत्त्वार्थ २/३१) । एक विग्रह (मोड़) वाली गति जिसकी काल मर्यादा दो समय की है उसके दोनों समय में जीव आहारक होता है। दो विग्रह अर्थात् मोड़ वाली गति जिसका काल तीन समय का है और तीन विग्रह वाली गति जिसका काल चार समय है इनमें भी प्रथम एवं अन्तिम समय में तो जीव आहारक होता है परन्तु बीच के समय में अनाहारक अवस्था पायी जाती है। दो विग्रह वाली गति में मध्य के एक समय तक और तीन विग्रह वाली गति में प्रथम तथा अन्तिम समय को छोड़कर बीच के दो समय पर्यन्त जीव अनाहारक स्थिति में रहता है। टीका में व्यवहार नय के अनुसार पाँच समय के परिणाम वाली चतुर्विग्रह वाली गति के मतान्तर को लेकर जीव को तीन समय तक भी अनाहारक बतलाया गया है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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