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________________ परिमाण-द्वार गाथा क्रमांक ९८, ९९, १०० में उल्सेधांगुल से निष्पन्न योजन को चर्चा की गई है तथा गादा ११ को विधेचन में : बाल से निष्पन्न योजन की चर्चा की गई है। आगे गाथा क्रमांक १०३ में आत्मांगुल की चर्चा की जा रही है। तेणंगुलेणं जं जोयणं तु एत्तो असंखगुणयारो (० एहिं)। सेढी पगरं लोगो लोगा तो अलोगो य ।।१०।। ___ गाथार्थ- उस (प्रमाणांगुल) से बने योजन को असंख्यात से गुणा करने पर एक श्रेणी होती है। उसको असंख्यात से गुणा करने पर एक प्रतर होती है तथा एक प्रतर को असंख्यात से गण करने पर लोक का परिमाण बनता है और लोक को अनन्त से गुणा करने पर अलोक का परिमाण बनता है। आत्मांगुल जे जम्मि जुगे पुरिसा अनुसंयंगुलसमूसिया हुँसि । तेसि सयमंगुलं जं तयं तु आयंगुलं होई।।१०३।। गाथार्थ-- जो पुरुष जिस युग में स्वयं की अंगुली से एक सौ आठ अगुल ऊंचा होता है उस पुरुष की स्वयं की अंगुली को आत्मांगुल कहते हैं। विवेखन-आत्मांगुल अर्थात् स्वयं की अंगुली। जिस काल में जो मनुष्य होते हैं उस काल की अपेक्षा उनके अंगुल को आत्मागुल कहते हैं। उत्तम या प्रमाणोपेत पुरुष अपनी अंगुली से १०८ अंगुल परिमाण, मध्यम पुरुष १०४ अंगुल परिमाण तथा अधम पुरुष ९६ अगुल परिमाण वाले होते हैं। ___ गाथा ९३ में उत्सेधागुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल--- ये अंगुल के तीन तीन भेद बताये हैं। उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल का स्पष्टीकरण पूर्व गाथाओं में किया जा चुका है, अब यहाँ इन तीनों के तीन-तीन भेदो को विवेचना करते हैं। उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल तथा आत्मांगुल के तीन-तीन भेद हैं१. सूच्यंगुल, २. प्रतरांगुल तथा ३. घनांगुल हैं। १. सूध्यंगुल- एक अंगुल लम्बी, एक प्रदेश चौड़ी आकाश प्रदेश की श्रेणि को सूच्यंगुल कहते हैं। २. प्रतरांगुल-सूच्यंगुल को सूच्यंगुल से गुणा करने पर प्रतरांगुल निष्पन्न होता है। ३. घनांगुल-सूच्यंगुल से गुणित प्रतरांगुल को घनांगुल कहा जाता है। अर्थात् सूच्यंगुल एवं प्रतरांगुल को परस्पर गुणित करने पर घनांगुल बनता है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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