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काल- द्वार
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इस प्रकार अभव्य जीव जो कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा उसकी अपेक्षा से अचक्षुदर्शन अनादि- अनन्त है तथा भव्य जीव जो सिद्धि प्राप्त करेंगे उनकी अपेक्षा से अचक्षुदर्शन अनादि- सान्त है। जहाँ तक अचक्षुदर्शन के सादि और सान्त होने का प्रश्न हैं, यह लब्धि की अपेक्षा से न होकर उपयोग की अपेक्षा से हैं क्योंकि चक्षुदर्शन में उपयोग होने पर उसी समय अचक्षुदर्शन में उपयोग नहीं रहता है। अतः उस काल में अचक्षुदर्शन का अन्त हो जाता है। इसी अपेक्षा अचक्षुदर्शन को सादि से सान्त कहा गया होगा।
भव्यादि की स्थिति
भन्यो अगाड़ संतो अशाइऽणंतो भवे अथव्वो ।
सिद्धो य साइयांसो असंखभागंगुलाहारी ।। २३४ ।।
गाथार्थ - भव्य जीवों का संसार परिभ्रमण काल अनादि सान्त है। किन्तु अभव्य जीवों का संसार परिभ्रमण काल अनादि अनन्त है। सिद्ध अवस्था का काल सादि - अनन्त है । आहारक जीव अंगुली के असंख्यातवें भाग परिमाण
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विवेचन- भव्य जीव के मोक्षगामी होने के कारण उनका संसार अनादि- सान्त है। जबकि अभव्य जीव द्वारा कभी भी मोक्ष प्राप्त न कर सकने के कारण उनका अनादि-अनन्त संसार परिभ्रमण है। सिद्ध भवभ्रमण से मुक्त होने के कारण उनकी मोक्षदशा सादि-अनन्त होती है क्योंकि मुक्ति काल विशेष में प्राप्त होने से सादि और मुक्ति से संसारदशा में लौटना सम्भव नहीं होने से अनन्त होती हैं।
आहारक - प्रज्ञापना (सूत्र १३६४ ) में पूछा गया हैं कि भगवन् ! आहारक जीव लगातार कितने काल तक आहारक रूप में रहता है? गौतम आहारक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- ( १ ) छद्यस्थ आहारक तथा ( २ ) केवली आहारक ।
१. छद्मस्थ आहारक - जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहण जितने काल तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक आहारक रूप में रहता है अर्थात् उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी तक तथा क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण समझना चाहिये।
२. केवली आहारक - जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्व तक आहारक रूप में रहता है।
छद्मस्थ आहारक का न्यूनतम काल क्षुद्र भव के काल से दो समय होता हैं, क्योंकि प्रथम समय से जन्म होता है और दूसरे समय में मरण । अतः इन