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________________ २१८ जीवसमास ३. क्षायोपशमिक भाव-उदय में आये हुए कर्मों का क्षय तथा उदय में नहीं आये हुए कर्मों का उपशम होना क्षयोपशम है। इसकी चर्चा गाथा २६८ में करणे हा इरोम ने बताई है: जत्थार्थकार ने क्षयोपशम के अठारह भेद बताये हैं। यहाँ चारित्र के चार प्रकार न बताते हुए एक ही प्रकार बताया गया है। ४. औदपिक भाव-- यथा समय उदय को प्राप्त आठ कमों के फल या विपाक का अनुभव करना उदय है। उदय की अवस्था में होने वाला भाव औदयिक है। प्रस्तुत ग्रंथ की गाथा २६९ में औदयिक के अट्ठाईस भेद बलाये हैं जबकि तत्त्वार्थकार ने इसके इक्कीस भेद ही किये हैं। ५. पारिणामिक भाव-पाँचवाँ भाव पारिणामिक भाव है। निज स्वभाव से निज स्वभाव में परिणत होते रहना पारिणामिक भाव है। अवस्थित वस्तु का पूर्व अवस्था का त्याग किये बिना उत्तरावस्था में चले जाना परिणाम कहलाता है। प्रस्तुत ग्रंथ की गाथा २६९ में पारिणामिक भाव के तीन प्रकार बताये हैं। कर्म ग्रंथ तथा तत्त्वार्थकार ने भी इन्हीं तीन भेदों को स्वीकार किया है। अनुयोगद्वार तथा प्रवचनसारोद्धार में पारिणामिक भाव के दो भेद बातये हैं-१. सादि पारिशामिक भाव तथा २. अनादि पारिणामिक भाव। १. जीव द्रष्य में उपर्युक्त पाँचों ही भाव पाये जाते हैं। २. अजीव द्रव्यों में पुद्गल द्रव्य में औंदयिक तथा पारिणामिक भात्र पाये जाते हैं। शेष चार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय तथा काल में मात्र पारिणामिक भाव पाया जाता है। ऐसा गाथा २७० में बताया गया है। पुद्रल द्रव्य में भी परमाणु पुद्गल और द्वयणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक भाष वाले ही हैं किन्तु औदारिक आदि शरीर रूप स्कन्धों में पारिणामिक और औदयिक दोनों भाव पाये जाते हैं। ____ कर्म-पुद्गल में जीव के सहयोग से तो औपशमिक आदि पांचों भाव होते हैं। क्षाधिक तथा उपशामिक भाव केलिए नाणदसण खाइयसम्मं च चरणदाणाई। नव खाया लबीओ उपसमिए सम्म धरणं च।। २६७।। गायार्थ- केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, दानादि पांच लब्धियाँ- ये नौ प्रकार की क्षायिक लब्धि हैं।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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