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________________ जीवसमास काय स्थिति- कोई जीव बार-बार एक ही काय में-यथा पृथ्वीकाय पृथ्वीकाय में, उसकाय-त्रसकाय में जन्म ले तो वह काचस्थिति कहलाती है। एकेन्द्रिय जीव असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय में रहते हैं। वनस्पतिक जीव भी अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय स्थिति रह सकते हैं। बसकाय की उत्कृष्टतः दो सागरको, अन्य मान्यता के अनुसार संख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक स्वकाय स्थिति है। मनुष्य तथा तिर्यंच की अधिकतम सात-आठ मय तक की स्थकाय स्थिति : देव तथा नारक अपनी काय में पुन: जन्म नहीं लेते है। भव स्थिति- भवस्थिति अर्थात् वर्तमान भव की पर्याय की काल स्थिति जैसे देव तथा नारक एक ही भव करते हैं फिर भव बदल जाता है। नारकी पुन: नारकी नहीं बनते, देव पुन: देव नहीं बनते। इनकी उत्कृष्ट भव स्थिति तैतीस सागरोपम है। इसी प्रकार तिर्यंच तथा मनुष्य की भवस्थिति अधिकतम तीन पल्योपम की होती है। इस प्रकार कर्पस्थिति, कायस्थिति तथा भवस्थिति को सूक्ष्म अद्धासागरोपम तथा पल्योपम परिमाण से जानना चाहिये। क्षेत्र पल्योपम बायरसाहुमागासे खेतपएसाण समयमवहारे। बायर सामं खेत्तं उस्सप्पिणीओ असंखेज्जा ।।१३१।। ___ गाथार्थ- स्थूल अर्थात् बालागों तथा सूक्ष्म अर्थात् बालानों के खण्डों से भरे हर क्षेत्र के प्रदेशों में से प्रति समय एकएक आकाश प्रदेश का अपहार करने से क्रमशः स्थूल (बादर) तथा सूक्ष्म क्षेत्र पल्योपम होता हैं। इसका परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल जितना है। विवेचन १. बादर अथवा व्यवहार क्षेत्र पल्योपम-पूर्व कथित पल्य के जो आकाश प्रदेश हैं, उन प्रदेशों में से समय-समय पर एक-एक आकाश प्रदेश का अपहरण किया जाय, निकाला जाये। जितने काल में वह पल्य खाली यावत् विशुद्ध हो जाय वह एक बादर (व्यवहार) क्षेत्र पन्योपम हैं। । पूर्व में जो व्यवहारिक उद्धार पल्योपम और अद्धापल्योपम का स्वरूप बताया हैं उन्हीं के समान बालान कोटियों से पल्य को भरने की प्रक्रिया यहां भी ग्रहण की गई है किन्तु उसमें तथा इसमें अन्तर यह है कि पूर्व के दोनों पल्यों में समय की मुख्यता है तथा यहाँ क्षेत्र की मुख्यता है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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