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अन्तर- द्वार
२०३ का उत्कृष्ट उत्पत्ति विरह काल हैं। ठीक इसी प्रकार से सातो नरक में च्यवन का विरह काल जानना चाहिये। (प्रज्ञापनासूत्र, सूत्र ५६९ से ५७५)
सभी नरको का सामान्य अन्तर- काल प्रज्ञापनासूत्रादि में इस प्रकार बताया है- 'हे भगवान्! नरक गति कितने काल तक उपपात रहित होता है? हे गौतम! जघन्यतः एक समय तक तथा उत्कृष्टन बहू तक जाना चाहिए।'
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि जब सातों पृथ्वियों का अलग-अलग काल परिमाण कहा, तो फिर सामान्य से क्यों कहा?
इसका कारण है कि नरकगति में सातों नरकों का समूह रूप है जैसे एक मकान में सात मंजिलें होती हैं परन्तु कुल मिलाकर वह एक ही मकान कहा जाता है। सभी मंजिल में विभिन्न गोत्र के लोगों के रहने पर भी वे सभी एक ही मकान के निवासी कहे जाते हैं। उसी प्रकार सातों नरकों के निवासी सामान्यतः नारक ही कहे जाते हैं। नारक समुदाय का उत्कृष्ट विरहकाल (अन्तरकाल) बारह मुहूर्त कहा गया है।
संज्ञी तिर्यञ्च तथा मनुष्यों का विरह-काल- मूल गाथा में संज्ञी व इतर शब्द दिया है तथा उसका अन्तर काल चौबीस मुहूर्त बताया गया है। प्रज्ञापनासूत्र (सूत्र ५६१-५६२) के अनुसार- हे भगवान्! तिर्यञ्च गति कितने काल तक उपपात (उत्पत्ति) रहित होती है? हे गौतम! जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट से बारह मुहूर्त तक। इसी प्रकार से मनुष्य का विरह काल भी जानना चाहिये । (बृहद् संग्रहणी, गाथा ३३७ एवं ३४० )
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सभी संज्ञी (नरक, तिर्यञ्च मनुष्य तथा देव ) का जघन्य अन्तर काल एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर- काल बारह मुहूर्त का है। (प्रज्ञापना सूत्र, ५६० से ५६३)
असंज्ञी ( सम्मूर्च्छिम) पश्चेन्द्रिय तथा मनुष्य का अन्तर- काल
गाथा में संमूर्च्छिम तिर्यञ्च का विरह - काल भी नहीं बताया गया है।
द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय का उत्कृष्ट अन्तर- काल अन्तर मुहूर्त का जानना चाहिए - ( प्रशापनासूत्र, सूत्र ५८१ से ५८४) एवं (बृहद्संग्रहणी गाथा - ३३६)
मूलगाथा में सम्मूर्च्छिम मनुष्य का अन्तरकाल उत्कृष्टतः चौबीस मुहूर्त बताया गया है। जघन्यतः तो सभी का विरह काल एक समय का होता है। (प्रज्ञापनासूत्र५८५ तथा बृहद्संग्रहणी, गाथा - ३४०)