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परिमाण द्वार
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" जितनी तरह के वचन हैं उतनी ही तरह के नय हैं।" इससे दो बाते ज्ञात होती हैं, प्रथम यह कि नय अनेक हो सकते हैं। दूसरी यह कि नय का सम्बन्ध वचन व्यवहार के साथ है। यदि नय का सम्बन्ध वाक व्यवहार से हैं तो प्रत्येक नय वचन व्यवहार का ही एक ढंग होता है। किन्तु वचन व्यवहार भी वक्ता के अभिप्राय पर निर्भर होता हैं, अतः नव को वक्ता के अभिप्राय पर भी आधारित माना गया है।
वस्तु
नय के में दो भेद हैं मूल निश्चय और व्यवहार जो के स्वद्रव्य और स्वपर्याय को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है उसे निश्चय नय कहते हैं। जो वस्तु की दूसरे द्रव्यों या पदार्थों के निमित्त से होने वाली पर्यायों को विषय करता है उसे व्यवहार नय कहते हैं।
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निश्चयनय.. इसके भी दो भेद हैं- १. द्रव्यार्थिक और २. पर्यायार्थिक | द्रव्य के सामान्य पक्ष को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक और विशेष विषय पक्ष को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिक निश्चय नय है।
द्रव्यार्थिक नय के निम्न १० भेद माने गये हैं
१. नित्यद्रव्यार्थिक. २. एक द्रव्यार्थिक ३ सद् द्रव्यार्थिक ४. वक्तव्य द्रव्यार्थिक, ५. अशुद्ध द्रव्यार्थिक ६ अन्वय द्रव्यार्थिक ७ परम द्रव्यार्थिक, ८. शुद्ध द्रव्यार्थिक ९ सत्ता द्रव्यार्थिक और १० परमभाव ग्राहक द्रव्यार्थिक ।
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पर्यायार्थिक नय के निम्न ६ भेद हैं
१. अनादि नित्य पर्यायार्थिक २. सादि नित्य पर्यायार्थिक ३. अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, ४ अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक ५ कर्मोपाधि रहित नित्य शुद्ध पर्यायार्थिक, ६. कर्मोपाधि सहित अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिक (देखें- श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह भाग २, पृष्ठ ४११ )
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व्यवहार नय - यद्यपि व्यवहार वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न बताकर उसके आभासित स्वरूप को बतलाता है, परन्तु वह भी मिथ्या नहीं हैं— यथा “घी का घड़ा" इस कथन से वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान तो नहीं होता है अर्थात् यह तो ज्ञात नहीं होता कि घड़ा मिट्टी का है या पीतल आदि का है। परन्तु इतना अवश्य ज्ञात होता हैं कि उसमे घी रखा जाता है। जिसमें घी रखा जाता है— ऐसे घड़े को व्यवहार में घी का घड़ा कहते हैं। इसलिए यह बात ब्यबहार से सत्य है। व्यवहार नय मिथ्या तभी हो सकता है जबकि उसका विषय निश्चय का विषय मान लिया जाये अर्थात् घी के घड़े का अर्थ घी से बना हुआ घड़ा समझे । जब तक व्यवहार नय अपने व्यवहारिक सत्य पर कायम हैं तब तक उसे मिथ्या नहीं कह सकते।