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________________ मङ्गलाचरण (६) मिथ्यात्व, सास्वादन, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक एवं मिश्र भाव की अपेक्षा से अथवा पांच इन्द्रियों एवं मन की अपेक्षा से अथवा षद्जीव. निकाय की अपेक्षा से जीव छः प्रकार के होते है। (७) छ: लेश्या एवं अलेश्या की अपेक्षा से जीव सात प्रकार के हैं। (८) सात समुद्रात तथा असमुद्धात की अपेक्षा से जीव आठ प्रकार (१) शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, सचित्ताचित्त, संवृत, विवृत्त तथा संवृतविवृत्त इन नौ योनियों की अपेक्षा से जीव नौ प्रकार के होते हैं। (१०) पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय तथा अनिन्द्रिय की अपेक्षा से जीवों के दस प्रकार होते हैं। (११) पांच प्रकार के पर्याप्त, पांच प्रकार के अपर्याप्त (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय वीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय) एवं पर्याप्ति रहित इस अपेक्षा से जीव के ग्यारह प्रकार भी होते हैं। (१२) पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार दर्शन इन बारह उपयोगों की अपेक्षा से जीव बारह प्रकार के होते हैं। (१३) षट्जीवनिकाय के पर्याप्त एवं अपर्याप्त ऐसे बारह भेद तथा तेरहवाँ अकाय (सिद्ध) इस तरह जीवों के तेरह भेद होते हैं। (१४) चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा से जीवों के चौदह प्रकार होते हैं। साधना की अपेक्षा से अधिक उपयोगी होने के कारण प्रस्तुत कृति में इन चौदह भेदों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार अन्य-अन्य अपेक्षाओं से जीवों के इससे अधिक भेद भी किये जा सकते हैं। पंचसंग्रह (११३३) में जीवस्थानो को जीवसमास के नाम से अभिहित करते हुए जीवों के क्रमश: चौदह, इक्कीस, तीस, बतास, छत्तीस, अड़तालीस, चौपन तथा सत्तावन भेद भी बताये गये हैं। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश (भाग २, पृष्ठ ३४१) में- जीवसमासो के अनेक भेद-प्रभेद बताये गये हैं- वे भेद क्रमश: इस प्रकार हैं- चौदह, चौबीस, तीस, बत्तीस, चौतीस, छत्तीस, अड़तीस, अड़तालीस, चौपन, सत्तावन, पचासी, अट्ठानवे तथा चार सौ छः। जीवविचारप्रकरण में जीव के पांच सौ तिरसठ (५६३) भेद भी बताये गये हैं।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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