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क्षेत्र द्वार
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गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव समुद्घात न करते हों तब तथा समुद्घात करते समय दण्ड, कपाट आदि की अवस्थाओं मे तो लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। मथानी का आकार बनाते समय भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं पर चौथे समय में लोकव्यापी होने के कारण वे सम्पूर्ण लोक में होते हैं, ऐसा कहा गया है।
तिरिएगिदिमा सव्वे तह काबरा अचज्जता ।
सच्चेवि सव्वलोए सेसा 3 असंखभागम्मि ।। १७९ ।।
गाथार्थ - सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय तिर्यञ्च तथा अपर्याप्त बादर जीव सर्वलोक में होते हैं। शेष जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।
प्रश्न – सूक्ष्म एकेन्द्रिय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं यह बात तो शास्त्र प्रमाणित है, परन्तु बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त को लोकव्यापी कैसे कहा गया हैं?
उत्तर - प्रश्न यथोचित है— सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपने- अपने स्वस्थान में रहते हुए भी सर्वलोक में व्याप्त हैं किन्तु बादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीव उत्पाद तथा समुद्घात की अपेक्षा से लोकव्यापी कहे गये हैं। उत्पाद से आशय विग्रहगति से तथा समुद्घात से आशय मारणांतिक समुद्घात से हैं ।
विग्रहगति में जीव जिस स्थान को छोड़कर जहाँ पैदा होता है— उस बीच के सारे स्थान को यह विग्रहगति में स्पर्श कर लेता है। पारणांतिक समुद्घात में भी जीव आत्मप्रदेशों को वहाँ तक फैलाता है जहाँ उसे जन्म लेना है। इन दोनों ( उत्पाद व समुद्घात) की अपेक्षा से बादर अपर्याप्त जीव को सर्वलोकव्यापी कहा गया है ।
वायुकाय
प्रज्जत्तदायराणिल सङ्ग्राणे लोगऽसंखाभागे ।
उववायसमुग्धाएण सव्वलोगष्मि होज्जहु ।। १८० ।।
गावार्थ- बादर पर्याप्त वायुकाय स्वस्थान ( जन्मस्थान) की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं इनका उपपात तथा समुद्घात सर्वलोक में होता है।
विवेचन - बादर पर्याप्त वायुकाय स्वस्थान के आश्रय से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। लोक में ये सर्वत्र होने पर भी उसके असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहा है कि एक भव से दूसरे भव में जाने रूप उपपात (उत्पत्ति) और मारणांतिक समुद्घात से बायुकाय सम्पूर्ण लोक में होते हैं। भवान्तराल अर्थात् विग्रहगति में रहे जीव मारणांतिक समुद्घात के समय में