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________________ २४ जीवसमास के, गन्धर्व बारह प्रकार के, राक्षस सात प्रकार के, यक्ष तेरह प्रकार के, भूत नौ प्रकार के तथा पिशाच पन्द्रह प्रकार के होते हैं। ज्योतिष्क ' चंदा सूरा व गहा नक्खत्ता तारगा य पंचविहा जोई सिया नरलोए गहरयओ संठिया सेसा ।। १९ ।। गाथार्थ - सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र तथा तारे-ये पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव मनुष्य लोक में तो गतिशील हैं, किन्तु मनुष्य लोक से आगे सभी सूर्य चन्द्र स्थित हैं। वैमानिकों के भेद- सोहम्मीसाणसणं कुमारमाहिंदबंभलंतयया I सुक्क सहस्साराणयपाणय तह आरणच्यया ।। २० ।। हेडिममज्झिमउवरिमगेविज्जा तिण्णि तिथिण तिष्णेव । सव्वविजयविजयंतजयंत अपराजिया अवरे । । २१ । । गाथार्थ - १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५. ब्रह्म, ६. लान्तक, ७. शुक्र, ८. सहस्रार, ९ आनंत १० प्राणत, ११. आरण तथा १२. अच्युत - ये बारह प्रकार के वैमानिक कल्पोपपत्र हैं। अधोग्रैवेयक, मध्यमैवेयक एवं ऊर्ध्वमैवेयक इन तीनों स्थानों में ( समानान्तर रूप से) तीन-तीन अर्थात् कुल नौ ग्रैवेयक हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध – ये पाँच अनुत्तर विमान हैं। इन ग्रैवेयकों तथा अनुत्तरविमानों के निवासी देव कल्पातीत कहे जाते हैं। विवेचन – कल्पोपपन्न एवं कल्पातीत की परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र केटीकाकारों ने इस प्रकार से दी है— विमानेषु भवा वैमानिकाः । कल्पोपपन्ना इन्द्रादिदशतया कल्पनात् कल्पाः सौधर्मादयोऽच्युतान्ताः तेषूपपन्ना कल्पोपपन्नाः । कल्पानतीता: कल्पातीताः उपरिष्टाः सर्वे ग्रैवेयकविमानपंचकाधिवासिनः । ( तत्त्वार्यसूत्र ४ / १७ - १८ टीका सिद्धसेनगणि) तत्त्वार्थसूत्र ४ / ३ की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी कहते हैंकल्प इस संज्ञा का क्या कारण है? जहाँ इन्द्रादि दस प्रकार के देवों की व्यवस्था होती है वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इन्द्रादिक भेदों की कल्पना भवनवासियों में भी संभव है फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। संक्षेप में जो
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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