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________________ जीवसमास दूसरे छह मास के बाद तीसरे छह मास में वाचनाचार्य तप करते हैं। शेष आठ में से सात अनुवारी व एक वाचनाचते हैं. ११२ यह १८ मास की परिहारविशुद्धि तपाराधना हैं। कल्प समाप्त होने पर साधक या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं या अपने गच्छ में पुन: लौट आते हैं या पुनः वैसी ही तपस्या प्रारम्भ कर देते हैं। इस परिहार विशुद्धि तप के आराधक इसे तीर्थंकर भगवान् के सान्निध्य में अथवा जिसने इस कल्प को तीर्थंकर से स्वीकार किया हो उसके पास ही अंगीकार करते हैं अन्य के पास नहीं। यह चारित्र जिन्होंने छेदोपस्थापनीय चारित्र अंगीकार किया है, उन्हीं को होता है। परिहार विशुद्धि चारित्र का अधिकारी बनने के लिए जघन्यायु उनतीस (२९) वर्ष तथा जघन्य दीक्षा पर्याय बीस (२० ) वर्ष आवश्यक हैं। इस संयम का उत्कृष्ट काल कुछ कम (२९ वर्ष कम ) पूर्व कोटि वर्ष तक माना गया है। इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होता है। इस चारित्र के धारक मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा एवं बिहार और अन्य समय में ध्यान, कायोत्सर्गादि करते हैं। इस चारित्र को धारण करने वाले दो प्रकार के होते हैं। — १. इत्यरिक जो कल्प की समाप्ति के बाद पुनः उसी गच्छ में आ जाते हैं! २. यावत्कथित जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के जिनकल्प स्वीकार कर लेते हैं। ४. सूक्ष्म सम्पराय चारित्र - जिसके कारण जीव चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करता है उसे सम्पराय कहते हैं। संसार परिभ्रमण के मुख्य कारण क्रोधादि कषाय हैं। जिस चारित्र में सूक्ष्म अर्थात् संज्वलन लोभ रूप कषाय ( सम्पराय) का उदय ही शेष रह जाता है, ऐसा चारित्र सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाता है। यह दसवें गुणस्थानवर्ती जीवों को होता है। यह चारित्र संक्लिश्यमान और विशुद्धयमान के भेद से दो प्रकार का होता है। (१) क्षपक श्रेणी या उपशम श्रेणी पर आरोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है जबकि (२) ग्यारहवें पर चढ़कर वहाँ से गिरकर जब साधक पुनः दसवें पर आता है, तो वह संक्लिश्य मानक कहलाता है क्योंकि गिरने में संक्लेश ही कारण बनता है।
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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