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________________ काल-द्वार १८१ गाथार्थ-नारको में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति भवस्थिति के समतुल्य होती है किन्तु सम्यक्त्व की स्थिति मवस्थिति से कुछ कम होती है। देवों में सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व दोनों ही भव स्थिति तुल्य होती हैं। देव तथा नारक- दोनो में सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व की अधन्य स्थिति अन्तमुहूर्त परिमाण है। विवेधन-जब कोई पिथ्यात्वी तिर्यञ्च या मनुष्य मरकर नरक में उत्पन्न होता है तथा वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता तो उसके मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थिति भवस्थिति के समतुल्य होती है। जब कोई जीब सम्यक्त्व का परित्याग करके ही नरक में जन्म लेता है और यदि वह नरक में जन्म लेते ही सम्यक्त्व को प्राप्त कर ले तब भी उसके सम्यक्त्व की स्थिति उसकी भय स्थिति से कुछ कम ही होगी। विशेष-यहाँ गाथाकार ने नरक में सम्यक्त्व की स्थिति भवायू में कुछ कम बताई है। जबकि प्रथमादि नरक में क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीव भी जाते हैं। क्षाधिक सम्यक्त्व का कभी पत्तन नहीं होता, वह आकर कभी जाता नहीं; अत: उस अपेक्षा से उसका काल भवस्थिति से कम नहीं होगा? हाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में इस प्रकार की भवस्थिति से कुछ कम काल मर्यादा सम्भव है। कुछ आचार्यों की मान्यता यह है कि सम्यक्त्व से युक्त जीव नरक में नहीं जाता है। यदि किसी ने पूर्व में नरकाय का बन्ध कर लिया हो और बाद में उसे क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त हुआ तो भी वह मरणकाल में सम्यक्त्व का वमन करके ही नरक में जायेगा। देवताओं का सम्यक्त्व भी नारक तुल्य समझना चाहिये। नारीदत् देवों में भी सभ्यस्त्व भवस्थिति पर्यन्त अथवा भवस्थिति से कुछ न्यून समझना चाहिये। मिथ्यात्व की स्थिति तो देवों में भी मदत्ति पर्यन्त है। नारक तथा दव मे सम्यक्त्व या मिध्यात्व का जघन्य काल लो अन्तर्मुहूर्त जितना ही है। अपर्याप्तावस्था में उपशम सम्यक्त्व की उपस्थिति का प्रश्न तस्वार्थकार अपर्याप्तावस्था में तीनों सम्यक्त्व का सदभाव स्वीकार करते हैं। कर्मग्रन्थ ४ गाथा १४ मे कहा है कि आयु पूर्ण हो जाने पर जब कोई उपशम-सम्यक्त्वी ग्यारहवं गुणस्थान से च्युत होकर अनुत्तरविमान में पैदा होता है तब उसे अपर्याप्तावस्था में उपशम सम्यक्त्व होता है। यह मन्तव्य छठे कर्मग्रन्थ की चूणी तथा पंचसंग्रह के मतानुसार भी समझना चाहिये। चूर्णी के अनुसार अपर्याप्तावस्था में नारकों में क्षायोपशमिक और क्षायिक- ऐसे दो सम्यक्त्य तथा देवों में उपशम सहित तीनों सम्यक्त्व पाये जाते हैं। पञ्चसंग्रह के प्रथमद्वार की गाथा २५ तथा उसकी टीका में उक्त चर्णि के मत की पुष्टि की गयी है। गोम्मटसार
SR No.090232
Book TitleJivsamas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1998
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size5 MB
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