Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 259
________________ २०६ जीवसमास के अनन्त जीव रहते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव तो उससे भी अधिक होते हैं। कला है. - गोलाय असंखिज्जा, संखनिगोवगोलओ भणिओ । हक्कक्कम्मि निगोए अनन्त जीवा गुणेयत्वा ।। १ ।। असंख्य निगोद के समुदाय रूप एक गोला होता है। लोकाकाश के जितने आकाश- प्रदेश हैं उतने ही सूक्ष्म निगोद जीवो के गोले है। एक-एक गोले में असंख्यात निगोद हैं। एक-एक निंगोद में अनन्त जीव हैं। भूत, भविष्य तथा वर्तमान इन तीनों काल के समय प्रदेशों की जो संख्या होती जीव एक-एक निगोद में हैं। निगोद के दो प्रकार हैं उससे अनन्तगुणा J १. व्यवहार राशि- जो एक बार निगोद से निकल कर पुनः निगोद में जन्म लेते हैं, वे निगोद के जीव व्यवहार राशि कहलाते हैं। २. अव्यवहार राशि- अव्यवहार राशि के सम्बन्ध में कहा गया है अस्थि अनंता जीवा जेहि न पतो तसत परिणामो । उप्पज्जति खयंति व पुणो वि सत्येव तत्येव ।।१।। अर्थात् - ऐसे जीव अनन्त हैं जिन्होंने कभी त्रसत्व भाव को प्राप्त ही नहीं किया है, निगोद में ही पुनः पुनः जन्म-मरण करते हैं। ये निगोद के जीव एक वांस में साढे सत्तरह बार (१७ बार मरण तथा १८ बार जन्म) जन्म-मरण करते हैं। निगोद के जीव अत्यन्त अल्पायु वाले होते हैं। बादरनिगोद, सूक्ष्मनिगोद तथा वनस्पतिकाय का अन्तरकाल असंख्यात लोक परिमाण (पूर्ववत्) जानना चाहिए। तिर्यश्च - तिर्यञ्च में से निकलकर तीनों गतियों में भ्रमण कर पुनः तिर्यञ्चत्त्व प्राप्त करने का अन्तर- काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः साधिक सौं सागरोपम पृथक्त्व काल हैं। नपुंसक - जीव नपुंसक वेद को छोड़कर पुनः नपुंसकता प्राप्त करे। इसका उत्कृष्ट अन्तर-काल साधिक सौ सागरोपम तुल्य होता है। असंज्ञी -- संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के अतिरिक्त सभी जीव असंज्ञी हैं। असंज्ञी का अर्थ है विवेकशील से रहित । एकेन्द्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पचेन्द्रिय तक जीव असंशी कहलाते हैं। सम्मूर्च्छिम पंचेन्द्रिय का ग्रहण नहीं किया गया है क्योंकि उनका अन्तर- काल वनस्पति की काय स्थिति के तुल्य होता है और यह काल असंख्यात पुलपरावर्तन के काल जितना है। यह काल गाथा के अनुसार नहीं है।)

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