Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 257
________________ जावसमास प्रसकायादि थावरकालो तसकाइमाण एगिदियाण तसकालो। वायरसहमे हरिएअरे व कमसो पउंजेज्जा ।। २५१।। गाथार्थ-सकाल का अन्सर-काल स्थावरकाय के स्थितिकाल के समुतल्य है। एकेन्द्रिय का अन्तरकाल त्रस जीवों की काय-स्थिति के काल के समतुल्य होता है। बादरकाय का विरह काल सूक्ष्मकाय की काय-स्थिति के समतुल्य होता है। सूक्ष्मकाय का अन्तरकाल बादरकाय को काय-स्थिति जितना होता है। वनस्पतिकाय का अन्तरकाल पृथ्वीकायादि के काय-स्थिति के समतुल्य होता है तथा पृथ्वीकायादि का अन्तरकाल वनस्पतिकाय की काय-स्थिति के समान होता है। विवेधन-त्रसकाय का परित्याग कर अन्यकाय में जन्म लेकर पुनः उसकाय को प्राप्त करने का अन्तर-काल स्थावरकाय की काय-स्थिति के समतुल्य अर्थात् आलिका का असंख्यातवां माग राशि परिमाण पुद्गल परावर्तन रूप है। एकेन्द्रिप-एकेन्द्रियकाय छोड़कर पुन: एकेन्द्रियकाय को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तर-काल त्रसकाल के स्थिति परिमाण अर्थात् साधिक दो हजार सागरोपम परिमाण है। बादर-बादर-नाम कर्मोदय वाले पृथ्वी आदि का पुन: पृथ्वंकापादि में जन्म लेने का उत्कृष्ट विरह-काल सूक्ष्म जीवों का स्थितिकाल परिमाण अर्थात् असंख्यात लोकाकाश प्रदेश-राशि में प्रत्येक का अपहरण करते हुए असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी परिमाणकाल जानना चाहिए। सूक्ष्म-सूक्ष्म पृथ्वीकायादि में से निकलकर पुन: सूक्ष्मकाय में जन्म लेने का उत्कृष्ट अन्तर-काल बादर जीव का स्थितिकाल परिमाण अर्थात् सत्तर कोटा-कोटी सागरोपम का है। बनस्पतिकाम-वनस्पतिकाय का पुन: वनस्पतिकाय में जन्म लेने का उत्कृष्ट विरहकाल पृथ्वीकाय आदि का स्थिति-काल अर्थात् असंख्यात लोकाकाश की प्रदेश राशि का प्रत्येक समय अपहरण करने पर जितना उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल व्यतीत होता है उतने काल परिमाण जानना चाहिये। पश्वीकापादि-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय तथा वायुकाय में से निकल कर जीव पुनः इन्ही कायों को प्राप्त करने का अन्तर-काल वनस्पतिकाय के काय-स्थिति के समतल्य स्थिति अर्थात् आवलिका का असंख्यातवें भाग में रहे समय जितना पुद्गल परावर्तन स्वरूप काल तुल्य जानना चाहिये। जघन्य से सभी का अन्तर-काल अन्तर्मुहर्त परिमाण जानना चाहिये।

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