Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 267
________________ जीवसमास गाथार्थ - भव अर्थात् संसार तथा भाव अर्थात् संसार में परिभ्रमण करने वोले जीवों की विभिन्न अवस्थाएँ — इन दोनों की जानकारी कराने वाले इस काल विभाग को क्रमशः जानकर और इनके अन्तर काल का अनुगमन कर भाव- द्वार अर्थात् वृति के द्वारा अप्रमत या सजग बनना चाहिए। २१४ विवेचन- इस गाथा में तीन द्वारों की चर्चा की गई हैं- १. कालद्वार, २. अन्तरद्वार, ३. भाषद्वार। पूर्व अध्याय में कालद्वार की चर्चा की कि जीव कितने काल तक किस पर्याय में रहता है। इस अध्याय में अन्तरद्वार की चर्चा करते हुए यह बताया गया हैं कि जीव एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को ग्रहण करता है। पुनः उसी पर्याय को प्राप्त करने में कितना अन्तर- काल होता है इसकी चर्चा की। अब अग्रिम अध्याय में भावद्वार का श्रवण कर सावधान बनने की बात यहाँ कही गई है। अजीव का अन्तरकाल परमाणू दव्वाणं दुएएसाईणमेव खंभाणं । समओ अनंतकालोति अंतरं नत्थ सेसाणं । । २६४ । । अन्तरदारं ६ | गाथार्थ - द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेश आदि विभिन्न स्कन्ध द्रव्यों से स्कन्ध या परमाणुओं को अलग होकर पुनः संयोजित होने का जघन्य अन्तर- काल एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर काल अनन्तकाल का है। शेष द्रव्यों का अन्तर- काल नहीं है। विवेचन - किसी भी स्कन्ध से टूटकर परमाणु या स्कन्ध के अलग होने तथा पुनः उस ही स्कन्ध के साथ संयुक्त होने का जघन्य अन्तर काल एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर- काल अनन्तकाल का है। जबकि कोई परमाणु किसी स्कन्ध से जुड़ता है और पुनः उससे टूटकर परमाणुत्व को प्राप्त करता है उसका अन्तर- काल जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टतः असंख्यात काल जितना होता है। हे भगवन्! परमाणु के पुनः परमाणुत्व प्राप्त करने का अन्तर- काल कितना हैं? हे गौतम! जघन्यतः एक समय तथा उत्कृष्टतः असंख्यात काल है। द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्धों का जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टतः अनन्तकाल का अन्तर जानना चाहिए।

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