Book Title: Jivsamas
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 274
________________ माव-द्वार कपाव : कषाय मोहनीय कर्म के उदय से जीव क्रोधादि कषायों से आक्रान्त हैं। अज्ञान । ज्ञानावरणादि तथा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीवमति आदि अज्ञान को प्राप्त करता है। अविरति : चारित्र मोहनीय अर्थात् अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के उदय से जीव को विरति प्राप्त नहीं होती है। असंजी :: मनोअपर्याप्त नाम कर्म तथा ज्ञानावरण के उदय से जीव असंज्ञीत्व (विवेकाभाव) को प्राप्त करता है। मिष्णव : मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व-दशा को प्राप्त करता है। आहारकत्व : क्षुधावेदनीय तथा आहार पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जीव आहार ग्रहण करता है। पारिणामिकभाव : जीवत्व, भव्यत्व तथा अमव्यत्व- ये तीन पारिणामिक भाव हैं। जीवत्व-जीवन की योग्यता रूप स्थिति। भव्यत्व—मोक्ष जाने की योग्यता रूप स्थिति। अभव्यता-मोक्ष जाने की अयोग्यता रूप स्थिति। प्रश्न-आप ने पांचों भावों की बात की पर छठे सन्निपातिक भाव की तो चर्चा ही नहीं की? उत्तर-सनिपातिक भाव औदयिक आदि पाँच भावों से अलग नहीं होता है। वह तो विभिन्न भावों को सांयोगिक अवस्था का नाम है अत: उसकी अलग से चर्चा नहीं की गई है। मम्मामम्मागासा कालोति य पारिणामिओ भावो। खंभा देस पएसा अणू व परिणाम उवरण ।। २७०।।मावदारं गाथार्थ- १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशास्तिकाय तथा ४. काल में मात्र पारिणामिक भाव होता है। जबकि पुद्गल रूप- स्कन्ध, देश, प्रदेश तथा परमाणु में पारिणामिक तथा औदयिक भाव हैं। विवेचन-धर्मास्तिकाय आदि उपर्युक्त चारों द्रव्यों में मात्र पारिणामिक भाव हैं तथा अनादि काल से ये जीव तथा पुद्गल की गति या स्थिति के माध्यम है

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