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देवनारक गति
अल्पबहुत्व द्वार
२२७
सुरनरए सासाणा थोवा मीसा य संखगुणयारा।
तत्तो अविश्सम्मा मिच्छा य भवे असंखगुणा ।। २७९ ।।
गाथार्थ - देवलोक तथा नारकी में सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव सबसे कम होते हैं। मिश्र उनसे संख्यात गुणा अधिक होते हैं। अविरत सम्यक्त्वी उनसे असंख्यात गुणा अधिक होते हैं और मिथ्यात्वी उनसे असंख्यात गुणा अधिक होते है।
विवेचन - ज्ञातव्य हैं कि देव तथा नारक में चार गुणस्थान ही होते हैं। देशविरति आदि अन्य गुण स्थानों की वहाँ संभावना नहीं है।
तिर्यञ्च गति
तिरिएसु देसविरया थोवा सासायणी असंखगुणा ।
मीसा व संख अजया असंख मिच्छा अनंतगुणा ।। २८० ।। गाथार्थ - तिर्यों में देशविरति वाले सबसे कम है। उनसे सास्वादानी असंख्यात गुणा अधिक हैं। उनसे मिश्र दृष्टि वाले संख्यात गुणा अधिक हैं। उनसे अविरत समाधी गुणा अधिक हैं तथा उनसे मिध्यात्वी अनन्त गुणा
जीव हैं।
विवेचन - तिर्यंच गति में देशविरति नामक पाँचवें गुणस्थान तक की संभावना है। प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानकों का यहाँ अभाव रहता है। मनुष्य गति
मणुया संखेज्जगुणा गुणीसु मिच्छा भवे असंखगुणा । एवं अप्पाबहुयं दव्यपमाणेहि साहेज्जा ।। २८१॥
गाभार्थ - मनुष्य में मिध्यादृष्टि को छोड़कर शेष तेरह गुणस्थानों में उलटे क्रम से संख्यात गुणा अधिक अधिक संख्या होती है। जबकि मिथ्यादृष्टि उनसे असंख्यगुणा अधिक होते हैं। इस प्रकार द्रव्यपरिमाण से अल्प- बहुत्व जानना चाहिये।
विवेचन - मनुष्यों में चौदह गुणस्थान पाये जाते हैं। इनमें मिध्यादृष्टि को छोड़ करके शेष तेरह गुणस्थानवर्ती जीव आगे बताये गये क्रम से संख्यात गुणा अधिक होते हैं। इन तेरह गुणास्थानवर्ती में मिध्यात्वी मनुष्य ( संमूर्च्छिम मनुष्यों को सम्मिलित करने पर असंख्यात गुणा अधिक होते हैं। प्रथम गुणस्थान से ऊपर