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अन्तर-द्वार
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उत्कृष्टतः - इन दोनों प्रकार के चारित्रों का उत्कृष्ट विरहकाल अटारह कोटाकोटी सागरोपम का है। उत्सर्पिणी में सुषमा दुषमा नाम का चौथा आरा प्रारम्भ होने से पूर्व हो दोनो चारित्र का विच्छेद हो जाता है जिससे चौथे आर का दो कोटाकोटी सागरोपम, सुषमा नामक पांचवे आर का तीन कोटा कोटी सागरोपम तथा सुषमा- सुषमा नामक छठे आरे का चार कोटाकोटी सागरोपम काल । इस प्रकार उत्सर्पिणी के नौ कोटाकोटी सागरोपम तथा इस ही प्रकार अवसर्पिणी के नी कोटाकोटी सागरोपम ( कुल १८ सागरापम) तक इन दोनों (छेदोपस्थापनीयचारित्र तथा परिहारविशु का विक
सम्यक्त्व, विरति आदि
सम्मत्तसत्तगं खलु विरयाविरईय होई बोडसगं । विरईए पनरसगं विरहियकालो अहोरत्ता । । २६२ । ।
गाथार्थ - सम्यक्त्व स्वीकार करने वालों का सात दिन रात्रि तक का देशविरति स्वीकार करने वालों का चीदह दिन-रात्रि तक का तथा सर्वविरति चारित्र स्वीकार करने वालों का पन्द्रह दिन रात तक का उत्कृष्ट विरहकाल होता है।
विवेचन
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सम्यक्त्व - यह दो प्रकार का है- एक पूर्व से स्वीकृत ( पूर्व प्रतिपत्र) तथा दूसरा वर्तमान में स्वीकार करने वाला ( प्रतिपद्यमान)। इनमें प्रथम प्रकार के पूर्वप्रतिपन्न सम्यक्त्व आदि का कभी विरह नहीं होता पर प्रतिपद्यमान सम्यक्त्व ग्रहण करने वाले कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। इनका जघन्यतः अन्तर- काल ( विरहकाल ) एक समय तथा उत्कृष्टतः सात अहोरात्रिपर्यन्त का होता है।
देशविरति - देशविरति में भी पूर्व स्वीकृत अर्थात् पूर्व प्रतिपत्र सदैव ही असंख्यात होते हैं परन्तु देशविरति स्वीकार करने वालों (प्रतिपद्यमान) का विरहकाल जघन्यत: एक समय तथा उत्कृष्टतः चौदह दिन का होता है। आवश्यक सूत्र में देशविरति का उत्कृष्ट अन्तर काल बारह दिन कहा गया है।
सर्वविरति पूर्व प्रतिपन्न सर्वविरतिचारित्र वाले जो सदैव संख्यात रहते हैं परन्तु प्रतिपद्यमान अर्थात् सर्वविरतिचारित्र ग्रहण करने वालों का विरहकाल जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टत: पन्द्रह दिन का होता है।
द्वारों का चिन्तन
भवभावपरत्तणं कालविभागं कमेणऽणुगमित्ता । भावेण समुवत्तो एवं कुज्जऽ तराणुगमं । । २६३ । ।