________________
२१०
जीवसमास विवेचन-सास्वादन गुणस्थानवतों तथा औपशमिक सम्यग्दृष्टि, सास्वादन गुणस्थान तथा उपशम सम्यक्त्व का त्याग कर पुन: उसे प्राप्त करता है उसका जघन्य अन्तर-काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होता है।
यहाँ उपशम श्रेणी से पतित होते हुए सास्वादन गुणस्थानवर्ती अथवा औपशमिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से विवक्षा न करते हुए अनादि मिथ्यादृष्टि जिसने सम्यक्त्व और मिश्रपुञ्ज का उद्वर्तन किया है अथवा जिसके मोहनीय की छब्बीस प्रकृति सत्ता में हैं ऐसा मिथ्यात्वी पूर्व वर्णित क्रम से औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और वही औपशमिक सम्यक्त्व का वमन करते समय में पूर्व कथित न्याय से सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त होता है। ये दोनों ही गुणस्थानवर्ती चारों गति में हैं। दोनों विशेष होने से यहाँ इनका कथन किया गया है। दोनों कम से कम पल्योपम के असंख्यातवे भाग के पश्चात ही किस प्रकार पर्व स्थिति प्राप्त करते हैं वह बताते हैं- औपशमिक सम्यग्दृष्टि और सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव के मिथ्यात्व दशा में जाने के बाद सम्यक्त्त मोहनीय तथा मिन मोहनीय कर्मों का पुञ्ज सत्ता में रहता है। इन दोनों के सत्ता में रहने तक औपमिक सम्यक्त्व तथा सास्वादन गुणस्थान की प्राप्ति संभव नहीं। वह उन सम्यक्त्व मोहनीय तथा मिश्र मोहनीय के दलिकों को मिथ्यात्व मोहनीय के पुञ्ज में प्रतिसमय डालता हे इस प्रकार नाश करते हुए दोनों के दलिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही समाप्त होते हैं अर्थात बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं-(ऐसा कर्म-प्रकृति में कहा गया है)। तब ही वह जीव सास्वादन गुणस्थान या ऑपशमिक सम्यक्त्व को पुन: प्राप्त कर सकता है।
शेष सभी अर्थात् प्रथम गुणस्थानवर्ती तथा चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती सभी जीव का जघन्य अन्तर-काल अन्तर्मुहूर्त है ऐसा पूर्व गाथा में बताया गया है। कोई भी जीव उपशम श्रेणी से आरोहण एक भव मे दो बार हो कर सकता है।
क्षपक श्रेणी से आरोहण करने पर अन्तर-काल नहीं होता है, क्योंकि क्षपक जीव आगे ही बढ़ता है, गिरता नहीं। वह नियम से उसी भव में मोक्ष जाता है।
गुणस्थान
पल्लाऽसंखियभागं सासणमिस्सासमतमणुएस।
वासपुतं उवसामएस खवगेसु छम्मासा।। २५९।। गाचार्य-सामान्यतः लोक में सास्वादन एवं मिश्र गुणस्थानवी जीवों तथा असंज्ञी अर्थात् संमूर्छिम मनुष्यों का पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण काल