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जीवसमास दोनों समय को छोड़कर शेष दशा में आहारक ही रहता है इसलिए आहारक दशा का जघन्यकाल दो समय कम क्षुद्र भव जितना होता है। गुणों का जघन्य काल (अन्तर्मुहूर्त)
काओगी नर नाणी मिच्छ मिस्सा स बल सण्णी य ।
आहारकसायीवि य जहण्णमंतोमुहुत्तंतो ।। २३५।। गाथार्थ-काययोग, पुरुषत्व, ज्ञानीत्व, मिथ्यात्व, मिश्रगुणस्थान, चक्षुदर्शन, संज्ञीत्व आहारक तथा कषाय इन सबका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है।
१. शाययोंगी.. जापा.-- (सूत्र १३३४) में प्रश्न किया गया हैभगवन्। काययोग का काल कितना है?
हे गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: वनस्पतिकाय के काल पर्यन्त जानना चाहिये।
२. पुरुषवेद-प्रज्ञापना (सूत्र १३२८) में पूछा गया है- भगवन् ! पुरुषवेद का काल कितना है?
गौतम ! जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: कुछ अधिक सागरोपम पृथक्त्व जानना चाहिये।
३. ज्ञानी- प्रज्ञापना (सूत्र १३४६) में यह पूछा गया है— भगवन्! जीव कितने काल तक ज्ञानी पर्याय में रहता है?
हे गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गये हैं--- इनमें से सादि-सान्त (सपर्यवसित) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक तथा उत्कृष्टतः कुछ अधिक छियासठ सागरोपम काल जानना चाहिये।।
४. मिथ्याव-मिथ्यात्व का काल अभव्यत्व की अपेक्षा अनादि-अनन्त तथा भव्यत्व की अपेक्षा सादि-सान्त होता है। उसे जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतः अनन्त जानना चाहिये।
५. मिश्र- मिश्रगुणस्थान का काल (जीवसमास गाथा २१ के अनुसार) जघन्यत: एवं उत्कृष्टत: दोनो ही अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये।
६. पक्षदर्शन- प्रज्ञापना (सूत्र १३५४) में यह प्रश्न किया गया है- हे भगवन् ! चक्षुदर्शन का काल कितना है ?
हे गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टत: कुछ अधिक हजार सागरोपम का है। जब कोई त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रिय में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल में